पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कर्म सुनकर श्रीमान् उत्तेजित हो अपने पुत्र को दण्ड दें, यह श्रीमान् की प्रत्यक्ष निर्बलता है। क्या श्रीमान् उसे उचित शासक नही बनाना चाहते ? प्रसेनजित्-चुप रहो मन्त्री, जो कहता हूँ वह करो। [दौवारिक आता है] दौवारिक-महाराज की जय हो ! मगध से जीवक आये हे । प्रसेनजित्-जाओ, लिवा लाओ। [दौवारिक जाता है और जीवक को लिवा लाता है] जीवक-जय हो कोसल-नरेश की ! प्रसेनजित्-कुशल तो है जीवक ? तुम्हारे महाराज की तो सब बातें हम सुन चुके हैं, उन्हें दुहराने की कोई आवश्यक्ता नही। हां, कोई नया समाचार हो तो कहो। जोवक-दयालु देव, कोई नया समाचार नही है। अपमान की यन्त्रणा ही महादेवी वासवी को दुखित कर रही है, और कुछ नही । प्रसेनजित--तुम लोगों ने तो राजकुमार को अच्छी शिक्षा दी। अस्तु, देवी वासवी को अपमान भोगने की आवश्यकता नहीं। उन्हें अपनी सपत्नी-पुत्र के भिक्षान्न पर जीवन निर्वाह नही करना होगा। मन्त्री ! काशी की प्रजा के नाम एक पत्र लिखो कि वह अजात को राज-कर न देकर वासवी को अपना कर-दान करे, क्योकि काशी का प्रान्त वासवी को मिला है, सपत्नी-पुत्र का उस पर कोई अधिकार नही है। जीवक-महाराज ! देवी वासवी ने कुशल पूछा है और कहा है कि इस अवस्था में मैं आर्य-पुत्र छोडकर नहीं आ सकती, इसलिये भाई कुछ अन्यथा न समझें। प्रसेनजित्-जीवक, यह तुम क्या कहते हो। कोसल-कुमारी दशरथनन्दिनी शान्ता का उदाहरण उसके सामने है; दरिद्र ऋषि के साथ जो दिव्य जीवन व्यतीत कर सकती थी। क्या वासवी किसी दूसरे कोसल की राजकुमारी है ? कुल-शील- पालन ही तो आर्य-ललनाओं का परमोज्वल आभूषण है। स्त्रियों का वही मुख्य धन है । अच्छा, जाओ विश्राम करो। [जीवक का प्रस्थान सेनापति बन्धुल का प्रवेश] बन्धुल-प्रबलप्रताप कोसल-नरेश की जय हो ! प्रसेनजित्-स्वागत सेनापते ! तुम्हारे मुख से 'जय' शब्द कितना सुहावना सुनाई पड़ता है ! कहो, क्या समाचार है ? बन्धुल-मम्राट, कोसल की विजयिनी पर का वीरों के रक्त में अपने अरुणोदय का तीव्र दौड़ाती है और शत्रुओं को उसी रक्त में नहाने की सूचना देती है। राजाधिराज ! हिमालय का सीमाप्रान्त बर्बर लिच्छिवियों के रक्त से और भी ठण्ढा . अजातशत्रु: २२७