पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२४८

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कर दिया गया है । कोसल के प्रचण्ड नाम से ही शान्ति स्वयं पहरा दे रही है। यह सब श्रीचरणों का प्रताप है। अब विद्रोह का नाम भी नहीं है। विदेशी बर्बर शताब्दियों तक उधर देखने का भी साहस न करेंगे। प्रसेनजित्-धन्य हो विजयी वीर ! कोसल तुम्हारे ऊपर गर्व करता है और आशीर्वादपूर्ण अभिनन्दन करता है । लो, यह विजय का स्मरण-चिह्न !..." [हार पहनाता है] सब-जय, सेनापति बन्धुल की जय ! प्रसेनजित्-(चौंकते हुये) हैं ! जाओ, विश्राम करो। [बन्धुल जाता है]] दृश्या न्त र " अष्टम दृश्य [प्रकोष्ठ में कुमार विरुद्धक एकाकी] विरुद्धक-(आप-ही-आप) घोर अपमान ! अनादर की पराकाष्ठा और तिरस्कार का भैरवनाद ! यह असहनीय है। धिक्कार पूर्ण कोसल-देश की सीमा कभी की मेरी आँखों से दूर हो जाती विन्तु मेरे जीवन का विकास-सूत्र एक बड़े कोमल कुसुम के साथ बँध गया है । हृदय नीरव अभिलाषाओं का नीड़ हो रहा है। जीवन के प्रभात का वह मनोहर स्वप्न, विश्व-भर की मदिरा बनकर मेरे उन्माद की सहकारिणी कोमल कल्पनाओ का भण्डार हो गया। मल्लिका ! तुम्हें मैंने अपने यौवन के पहले ग्रीष्म की अर्द्धरात्रि में आलोकपूर्ण नक्षत्रलोक से कोमल हीरक-कुसुम के रूप में आते देखा। विश्व के असग्य कोमल कण्ठों की रसीली तानें पुकार बनकर तुम्हारा अभिनन्दन करने, तुम्हे सँभालकर उतारने के लिये, नक्षत्रलोक गयी थी। शिशिरकणों मे सिक्त पवन तुम्हारे उतरने की सीढी बना था, उषा ने स्वागत किया, चाटुकार मलयानिल परिमल की इच्छा से परिचारक बन गया, और बरजोरी मल्लिका के एक कोमल वृत्ल का आसन देकर तुम्हारी सेवा करने लगा। उसने खेलते-खेलते तुम्हे उस आसन से भी उठाया और गिराया। तुम्हारे धरणी पर आते ही जटिल जगत् की कुटिल गृहस्थी के आल-बाल मे आश्चर्यपूर्ण सौन्दर्यमयी रमणी के रूप में तुम्हें सबने देखा। वह कैसा इन्द्रजाल था - प्रभात का वह मनोहर स्वप्न था सेनापति बन्धुल, एक हृदयहीन क्रूर सैनिक ने तुम्हें अपने उष्णीव का फूल बनाया। और, हम तुम्हे अपने घेरे में रखने के लिए कँटीली झाड़ी बनकर पड़े ही रहे ! आज भी हम कोमल के कण्टकम्वरूप हैं.... ! २२८ : प्रमाद वाङ्मय