पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२४९

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[कोसल की रानी शक्तिमती का प्रवेश) शक्तिमती-छिः राजकुमार ! इसी दुर्बल हृदय से तुम संसार में कुछ कर सकोगे। स्त्रियों की-सी रोदनशी ला प्रकृति लेकर तुम कोसल के सम्राट बनोगे ? विरुद्धक-मां, क्या कहती हो ! हम आज एक तिरस्कृत युवकमात्र हैं, कहां का कोसल और कौन राजकुमार ! शक्तिमती-देखो, तुम मेरी सन्तान होकर मेरे सामने ऐमी नीच वात न कहो। दासी की पुत्री होकर भी मै राजरानी बनी और हठ से मैने इस पद को ग्रहण किया, और तुम राजा के पुत्र होकर इतने निस्तेज और डरपोक होगे, यह कभी मैने स्वप्न में भी न सोचा था। बालक ! मानव अपनी इच्छा-शक्ति और पौरुष से ही कुछ होता है। जन्मसिद्ध तो कोई भी अधिकार दूसरो के समर्थन का सहारा चाहता है । विश्वभर मे छोटे से बड़ा होना, यही प्रत्यक्ष नियम है। तुम इसकी क्यों अवहेलना करते हो ? महत्त्वाकांक्षा के प्रदीप्त अग्निकुण्ड मे कूदने को प्रस्तुत हो जाओ, विरोधी शक्तियों का दमने करने के लिए कालस्वरूप बनो साहस के साथ उनका सामना करो, फिर गा तुम गिरोगे या वे ही भाग जायेंगी। मल्लिका तो क्या, राजलक्ष्मी तुम्हारे पैरों पर लोटेगी। पुरुषार्थ करो ! इस पृथ्वी पर जियो तो कुछ होकर जियो, नही तो मेरे दूध का अपमान कराने का तुम्हे अधिकार नही ! विरुद्धक- -बस माँ ! अब कुछ न कहो। आज से प्रतिशोध लेना मेरा कर्तव्य और जीवन का लक्ष्य होगा। माँ मै प्रतिज्ञा करता हूँ कि तेरे अपमान के कारण इन शाक्यो का एक बार अवश्य संहार करूँगा और उनके रक्त मे नहाकर, कोसल के सिंहासन पर बैठकर, तेरी वन्दना करूंगा। आशीर्वाद दो कि इस परीक्षा मे उत्तीर्ण होऊँ। शक्तिमती-(सिर पर हाथ फेर कर)-मेरे बच्चे, ऐ • ही हो । [दोनों जाते है] दृश्या न्त र . नवम दृश्य [अपने प्रकोष्ठ में पद्मावती वीणा बजाना चाहती है, कई बार प्रयास करने पर भी सफल नहीं होती] पद्मावती-जब भीतर की तन्त्री बेकल है तब यह कैसे बजे ! मेरे स्वामी ! मेरे नाथ ! यह कैमा भाव है प्रभु ! अजातशत्रु : २२९