पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२५०

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किसी हृदय [फिर वीणा उठाती है और रख देती है, गाने लगती है] मीड़ मत खिचे बीन के तार । निर्दय उँगली ! अरी ठहर जा, पल-भर' अनुकम्पा से भर जा, यह मूच्छित मूर्च्छना आह-सी निकलेगी निस्सार । छेड़-छेड़कर मूक को, विचलित कर मधु मौन मन्त्र को- लय हो स्वर-संसार । मचल उठेगी सकरुण वीणा, को होगी पीडा, नृत्य करेगी नग्न विकलता परदे के उस पार । पद्मावती-(आप ही आप)-यह सौभाग्य ही है कि भगवान् गौतम आ गये है, अन्यथा पिता की दुरवस्था मोचते-मोचते तो मेरी बुरी अवस्था हो गयी थी। महाश्रमण की अमोध सान्त्वना मुझे धैर्य देती है, किन्तु मैं यह क्या सुन रही हूँ- स्वामी मुझसे असन्तुष्ट है। भला यह वेदना मुझसे कैसे सही जायगी ! कई बार दासी गयी. किन्तु वहाँ तो तेवर ही ऐसे ही है कि किसी को अनुनय-विनय करने का साहस ही नहीं होता। फिर भी कोई चिन्ता नही, राजभक्त प्रजा को विद्रोही होने का भय ही क्यों हो ? हमारा प्रेमनिधि सुन्दर सरल है । अमृतमय है, नही इसमे गरल है। [नेपथ्य से-'भगवान् बुद्ध की जय हो"] पद्मावती-अहा ! संघ-सहित करुणानिधान जा रहे हैं, दर्शन तो करूं । (खिड़की से देखती है) [पीछे से उदयन का प्रवेश] उदयन-(क्रोध से)-पापीयमी, देख ले, यह तेरे हृदय का विष-तेरी वासना का निष्कर्ष जा रहा है। इसीलिये न यह नया झरोखा बना है। पद्मावती - (चौंककर खड़ी हो जाती है। हाथ जोड़कर)-प्रभु ! स्वामी ! क्षमा हो! यह मूर्ति मेरी वासना का विष नही है किन्तु अमृत है, नाथ ! जिसके रूप पर आपकी भी असीम भक्ति है, उसी रमणी-रत्न मागन्धी का भी जिन्होंने तिरस्कार किया था-शान्ति के सहचर, करुणा के स्वामी -उन बुद्ध को, मांसपिण्डों की कभी आवश्यकता नहीं। २३०: प्रसाद वाङ्मय