पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२५१

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! उदयन-किन्तु मेरे प्राणों की है। क्यों, इसीलिये न वीणा में सांप का बच्चा छिपाकर भेजा था ! तू मगध की राजकुमारी है, प्रभुत्व का विष जो तेरे रक्त में घुसा है, वह कितनी ही हत्यायें कर सकता है। दुराचारिणी ! तेरी छलना का दांव मुझ पर नही चला-अब तेरा अन्त है, सावधान ! (तलवार निकालता है) पद्मावती-मैं कौशाम्बी-नरेश की रामभक्त प्रजा हूँ। स्वामी, किसी छलना का आपके मन पर अधिकार हो गया है। वह कलंक मेरे सिर पर ही सही, विचारक दृष्टि मे यदि मैं अपराधिनी हूँ, तो दण्ड भी मुझे स्वीकार है, और वह दण्ड, वह शान्तिदायक दण्ड यदि स्वामी के कर-क.मलों से मिले, तो मेरा सौभाग्य है । प्रभु पाप का सब दण्ड ग्रहण कर लेने से वही पुण्य हो जाता है। (सिर झुकाकर घुटने टेकती है) उदयन-पापीयसी ! तेरी वाणी का घुमाव-फिराव मुझे अपनी ओर नही आकर्षित करेगा। दुष्टे ! इस हलाहल से भरे हुए हृदय को निकाला ही होगा। प्रार्थना कर ले। पद्मावती-मेरे नाथ। इस जन्म के सर्वस्व ! और परजन्म के स्वर्ग ! तुम्ही मेरी गात हा और तुम्ही मेरे ध्येय हो, जब तुम्ही समक्ष हो तो प्रार्थना किसकी करूं? मैं प्रस्तुत हूँ। [तलवार उठाता है, इसी समय वासवदत्ता प्रवेश करती है] वासवदत्ता-ठहरिये ! मागन्धी की दासी नवीना आ रही है, जिसने सब अपराध स्वीकार किया है । आपको मेरे इस राजमन्दिर की सीमा के भीतर, इस तरह, हत्या करने का अधिकार नहीं है। मैं इसका विचार करूंगी और प्रमाणित कर दूंगी कि अपराधी कोई दूसरा है । वाह ! इसी बुद्धि पर आप राज्य शासन कर रहे है ? कौन है जी ? बुलाओ मागन्धी और नवीना को । दासी-महादेवी की जो आज्ञा (जाती है) उदयन-देवि ! मेरा तो हाथ ही नही उठता है, यह क्या माया है ? वासवदत्ता-आर्यपुत्र ! यह सती का तेज है सत्य का शासन है, हृदयहीन मद्यप का प्रलाप नही । देवी पद्मावती ! तू पति के अपराधों को क्षमा कर । पद्मावती-(उठकर)-भगवान्, यह क्या ! मेरे स्वामी ! मेरा अपराध क्षमा हो-नसे चढ़ गयी होंगी। (हाथ सीधा करती है) दासी -(प्रवेश करके)-महाराज, भागिये ! महादेवी हटिये वह देखिये आग की लपट इधर ही चली आ रही है। नयी महारानी के महर में आग लग गयी है, और उसका पता नही है ! नवीना मरती हुई कह रही थी कि मागन्धी स्वयं मरी और मुझे भी उसने मार डाला; वह महाराज का सामना नही करना चाहती थी। अजातशत्रु : २३१