पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२५५

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प्रधान बनें . क्या फिर इसी तरह और प्रदेश भी स्वतन्त्र होने की चेष्टा न करेंगे? क्या इसी में राष्ट्र का कल्याण है ? सभ्यगण-कभी नही, कभी नही । ऐसा कदापि न होने पावेगा। अजातशत्रु-तव आप लोग मेरा साथ देने के लिए पूर्ण रूप से प्रस्तुत हैं ? देश को अपमान से बचाना चाहते हे ? सभ्यगण -अवश्य ! राष्ट्र के कल्याण के लिए प्राण तक विसर्जन किया जा सकता है, और हम सब ऐमी प्रतिज्ञा करते हे । देवदत्त -तथास्तु ! क्या इसके लिए कोई नीति आप लोग निर्धारित करेगे? एक सभ्य-मेरी विनीत सम्मति है कि आप ही इस परिषद् और नवीन सम्राट को अपनी स्वतन्त्र सम्मति देकर राष्ट्र का कल्याण करे, क्योंकि आप सदृश महान्मा मत्रलोक के हित की कामना रखते हैं। राष्ट्र का उद्धार करना भी भारी परोपकार है। अजातशत्रु-यह गुझे भी स्वीकार है। देवदत्त मरो मम्पत्ति है कि गाम्राज्य का मैनिक अधिकार स्वयं लेकर सेनापति के रूप मे कोमल के माथ युद्र और उसका दमन करने के लिए अजातशत्रु को अग्रसर होना चाहिये। ममुद्रदत्त गुप्त प्रणिवि बनकर काशी जावे और प्रजा को मगध के अनुकूल बना, तथा गागन-भार परिषद अपने सिर पर ले। दूसरा सभ्य यदि सम्राट् बिम्बिसार इसमे अपमान समझे ? देवदत्त-जिमने राज्य अपने हाथ से छोडकर स्त्री की वश्यता स्वीकार कर लो, उसे इसका ध्यान भी नहीं हो सकता। फिर भी उनके समस्त व्यवहार वासवी देवी की अनुमति से होगे (सोचकर)-और भी एक बात . मै भूल गया था, वह यह कि इस कार्य को उत्तम रूप मे चलाने के लिए महादेवी छलना परिषद् की देखरेख किया करे। समुद्रदत्त-यदि आज्ञा हो, तो मै भी कुछ कहूँ । परिषदगण- हाँ, हॉ, अवश्य । समुद्रदत्त - यह एक भी मफल नहीं होगा, जब तक वासवी देवी के हाथ-पैर चलते रहेगे। यदि आप तोग राष्ट्र का निश्चित कल्याण चाहते है, तो पहले इसका प्रबन्ध करे। देवदत्त -तुम्हारा तात्पर्य क्या है ? समुद्रदत्त-यही कि वासवी देवी को म. राज बिम्बिसार से अलग तो किया नही जा सकता -फिर भी नावश्यकता से बाध्य होकर उपवन की रक्षा पूर्णरूप से होनी चाहिये । अजातशत्रु : २३५