पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२५७

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बन्धुल-राजकुमार ! आपको सम्राट ने निर्वासित तो किया नहीं, फिर आप क्यों इस तरह अकेले घूमते है ? चलिये-काशी का सिंहासन आपको मैं दिला सकता हूँ। विरुद्धक-नहीं बन्धुल ! मैं दया से दिया हुआ दान नहीं चाहता, मुझे तो अधिकार चाहिये, स्वत्त्व चाहिये । बन्धुल-फिर आप क्या करेंगे ? विरुद्धक-जो कर रहा हूँ। बन्धुल-वह क्या? विरुद्धक-मैं बाहुबल से उपार्जन करूँगा। मृगया करूंगा। क्षत्रिय-कुमार हूँ, चिन्ता क्या है ? स्पष्ट कहता हूँ बन्धुल, मैं साहसिक हो गया हूँ। अब वही मेरी वृत्ति है । राज्य-स्थापन के पहले मगध के भूपाल भी तो यही किया करते थे ! बन्धुल-सावधान ! राजकुमार ! ऐसी दुराचार की बात न सोचिये यदि आप इस पथ से नहीं लौटते, तब मेरा भी कुछ कर्तव्य होगा, जो आपके लिए बड़ा कठोर होगा। आतंक का दमन करना प्रत्येक राजपुरुष का कर्म है, यह युवराज को भी मानना ही पड़ेगा। विरुद्धक-मित्र बन्धुल ! तुम बड़े सरल हो। जब तुम्हारी सीमा के भीतर कोई उपद्रव हो, तो मुझे इसी तरह आवाहित कर सकते हो, किन्तु इस समय तो मैं एक दूसरी-तुम्हारे शुभ की बात कहने आया हूँ। कुछ समझते हो कि तुमको काशी का सामन्त क्यों बनाकर भेजा है ? बन्धुल-यह तो बड़ी सीधी बात है - कोसल-नरेश इस राज्य को हस्तगत करना चाहते हैं, मगध भी उत्तेजित है, युद्ध की सम्भावना है; इसलिए मैं यहां भेजा गया हूँ। मेरी वीरता पर कोसल को विश्वास है। विरुद्धक-क्या ही अच्छा होता कि कोसल तुम्हारी बुद्धि पर भी अभिमान कर सकता, किन्तु बात कुछ दूसरी ही है । बन्धुल-वह क्या ? विरुद्धक -कोसल-नरेश को तुम्हारी वीरता से सन्तोष नहीं; किन्तु आतंक है । राजशक्ति किसी को भी इतना उन्नत नहीं देखना चाहती। बन्धुल-फिर सामन्त बनाकर मेरा क्यों सम्मान किया गया ? विरुद्धक- यह एक षड्यन्त्र है जिससे तुम्हारा अस्तित्व न रह जाय । बन्धुल-विद्रोही राजकुमार ! मैं तुम्हें बन्दी बनाता हूँ। सावधान हो ! [पकड़ना चाहता है] विरद्धक-अपनी चिन्ता करो, मैं 'शैलेन्द्र' हूँ। अजातशत्र: २३७