पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२५८

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[विरुद्धक तलवार खींचता हुआ निकल जाता है, बन्धुल भी चकित होकर चला जाता है] [श्यामा का प्रवेश] श्यामा-(स्वगत)-रात्रि. चाहे कितनी भयानक हो, किन्तु प्रेममयी रमणी के हृदय से भयानक वह कदापि नही हो सकती। यह देखो, पवन मानो किसी डर से धीरे-धीरे सांस ले रहा है। किसी आतंक से पक्षिवृन्द अपने घोंसलों में जाकर छिप गये हैं । आकाश में तारों का झुण्ड नीरव सा है, जैसे कोई भयानक बात देखकर भी वे बोल नहीं सकते, केवल आपस में इंगित कर रहे है ! संसार किसी भयानक समस्या मे निमग्न-सा प्रतीत होता है ! किन्तु मै शैलेन्द्र से मिलने आयी हूँ---वह डाक है तो क्या, मेरी भी अतृप्त वासना है । मागन्धी ! चुप, वह नाम क्यों लेती है। मागन्धी कौशाम्बी के महल में आग लगाकर मरी -अब तो मै श्यामा, काशी की प्रसिद्ध वार-विलासिनी हूँ। बड़े-बड़े राजपुरुष और थेष्ठि इसी चरण को छूकर अपने को धन्य समझते है। धन की कमी नही मान का कुछ ठिकाना नही; राजरानी होकर और क्या मिलता था, केवल सापत्न्य ज्वाला की पीडा ! [विरुद्धक का प्रवेश विरुद्धक-रमणी ! तुम क्यो इस घोर कानन मे आयी हो ? श्यामा-शैलेन्द्र, क्या तुम्हे यह बताना होगा ! मेरे हृदय मे जो ज्वाला उठ रही है, उसे अब तुम्हारे अतिरिक्त कौन वुझावेगा ? तुम मेरे स्नेह की परीक्षा चाहते थे-बोलो, नुम कैसी परीक्षा चाहते हो ? विरुद्धक-श्यामा, मै डाकू हैं यदि तुमको इमी सगय मार डालू ! श्यामा-तुम्हारे डाकूपन का ही विश्वास करके आयी हूँ। यदि साधारण मनुष्य समझती-जो ऊपर से बहुत सीधा सादा बनता है- तो मै वदापि यहाँ आने साहस न करती। शैलेन्द्र, लो यह अपनी नुकीली क्टार, इम तड़पते हुए कलेजे मे भोंक दो ! (घुटने के बल बैठ जाती है) विरुद्धक-किन्तु श्यामा ! विश्वास करने वाले के माथ डाकू भी ऐसा नहीं करते, उनका भी एक सिद्धान्त होता है । तुममे मिलने मे इसलिये डरता था कि तुम रमणी हो और वह भी वारविलागिनी; मेरा विश्वास है कि ऐसी रमणियाँ डाकुओं से भी भयानक है। श्यामा-तो क्या अभी तक तुम्हें मेग विश्वास नहीं ? क्या तुम मनुष्य नही हो, आन्तरिक प्रेम की शीतलता ने नुम्हे कभी स्पर्श नही दिया ? क्या मेरी प्रणय- भिक्षा असफल होगी ? जीवन की कृत्रिमता में दिन-गत प्रेम का बनिज करते-करते क्या प्राकृतिक स्नेह का स्रोत एक बार ही सूख जाता है ? क्या वार-विलासिनी प्रेम करना नही जानती ? क्या कठोर और क्रूर कर्म करते-करते तुम्हारे हृदय में २३८: प्रसाद वाङ्मय