पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२५९

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चेतनालोक की गुदगुदी और कोमलता स्पन्दन नाम को भी अवशिष्ट नहीं हैं ? क्या तुम्हारा हृदय केवल मांडपिण्ड है ? उसमें रक्त का संचार नही ? नही-नही, ऐसा नही, प्रियतम-(हाथ पकड़कर गाती हैं) बहुत छिपाया, उफन पड़ा अव, सँभालने का समय नही है। अखिल विश्व मे सतेज फैला अनल हुआ यह प्रणय नही है । कही तडप कर गिरे न विजली, कही न वर्षा हो कालिमा की। तुम्हें न पाकर शशांक मेरे, बना शून्य यह, हृदय नही है ।। तड़प रही है कही कोकिला, कही पपीहा पुकारता है। यही विरुद क्या तुम्हे सुहाता, कि नील नीरद सदय नही है ।। जली दीपमालिका प्राण की, हृदय-कुटी स्वच्छ हो गयी है। पलक-पाँवड़े बिछा चुकी हूँ, न दूमरा और भय नही है । चपल निकल कर कहाँ चले अब, इमे कुचल दो मृदुल चरण से। कि आह निकले दबे हृदय से, भला कहो, यह विजय नहीं है ।। [दोनों हाथ-में-हाथ मिलाये हुए जाते हैं] दृश्या न्त र तृतीय दृश्य [मल्लिका के उपवन में मल्लिका और शक्तिमती] मल्लिका-वीर-हृदय युद्ध का नाम सुनकर ही नाच उठता है। शक्तिशाली भुजदण्ड फड़कने लगते है। भला मेरे रोकने से वे रुक सकते थे। कठोर कर्मपथ में अपने स्वामी के पैर तले का कण्टक भी मै नही होना चाहती। वह मेरे अनुराग- सुहाग की वस्तु है। फिर भी उनका कोई स्वतन्त्र आस्' भी है, जो हमारी शृंगार-मंजूषा मे बन्द करके नही रखा जा सकता। महान् हृदय को केवल विलास की मदिरा पिलाकर मोह लेना ही कर्तव्य नही है । शक्तिमती-मल्लिका तेरा कहना ठीक है, किन्तु फिर भी." मल्लिका--किन्तु-परन्तु नही। वे तलवार की धार है, अग्नि की भयानक ज्वाला है, और वीरता के वरेण्य दूत है। मुझे विश्वास है कि सम्मुख युद्ध में शक्र भी उनके प्रचण्ड आघातो को रोकने में असमर्थ है । रानी ! एक दिन मैने कहा कि 'मैं पावा के अमृतसर का जल पीकर स्वस्थ होना चाहती हूँ; पर वह सरोवर पांच सौ प्रधान मल्लों से सदैव रक्षित रहता है। दूसरी जाति का नाई भी उसमें जल नही पीने पाता।' उसी दिन स्वामी ने कहा कि 'तभी तो तुम्हें वह जल अच्छी तरह पिला सकूँगा।' अजातशत्रु : २३९