पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२६

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यदि न मानहिं मूरख टेक सों। करे हठि अनेक सों। [दुर्योधन क्रोध दिखलाता है कर्ण - (तलवार निकाल कर) अपनी चपत जीभ को गेक और अपनी रक्षा कर ! (दोनों तलवार निकालकर युद्ध करते हैं। इतने में विद्याधरों को साथ में लिए हुए चित्रसेन का प्रवेश) [गन्धर्वो को ससैन्य देखकर सब का खड़े हो जाना। आगे बढ़कर और मुंह फेर कर दुर्योधन टहलने लगता है और उसकी सेना श्रेणीबद्ध खड़ी हो जाती है] चित्रसेन पोग्वाति तुमको बहुन ममझाया गया, परन्तु तुमने हठ न छोडा। [दुर्योधन अनसुनी करता है] चित्रसेन है, इतना घमण्ड ? बार बार सानुनय रह्यो यद्यपि मम अनुचर । तबहु न मान्यो मूढ प्राह मन्निवट 7 सर ।। मृगया नेलन लग्यो जहाँ मम विहरण को थल । प्रहरी वर्जन करयो तिन्है माग्यो तेहिप खन ॥ आनत नाहिं प्रचण्ड भुजन को पामर ! मेरे । चञ्चल दृढ कोदण्ड और नाराच करेरे ? अपहुँ न क्यो हटि जात, मानि के आज्ञा मेरी । क्षमा क्येि" बहु बार, अवज्ञा को हम तेरी ॥ [दुर्योधन क्रोध से तलवार खींचता है] दु.शासन-महाराज । सावधान रहिये । कर्ण--वस, बहुत बडबड़ा मत, नही तो ये अंगुलियां वीणा बजाने योग्य न रह जाएंगी । अह ह ह ह दुष्ट । सुघर साजि मनोहर रूप को नित रिझावहिं जो सुर भूप को, तिनहि मग वजावहु वीन को, तुहि मंगर की मति दीन को ? और यदि न मानेगा तो (दांत पीस कर) कोवानलज्ज्वलित भीम करालिका-सी, मंहारकारिणि हैं, जिमि कालिका-सी। १२. आइ १३. क्यिो १० . प्रसाद वाङ्मय