पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२६१

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शक्तिमती -क्या करूं! मल्लिका, मुझे दया आती है और तुमसे स्नेह भी है, क्योंकि तुम्हें पुत्रवधू बनाने की बड़ी इच्छा थी; किन्तु घमण्डी कोसल नरेश ने उसे अस्वीकार किया । मुझे इसका बड़ा दुःख है; इसीलिये तुम्हें सचेत करने आई थी। मल्लिका-बस, रानी बस ! मेरे लिये मेरी स्थिति अच्छी है और तुम्हारे लिये तुम्हारी। तुम्हारे दुविनीत राजकुमार से न ब्याही जाने मे मैं अपना सौभाग्य ही समझती हूँ। दूसरे की क्यों, अपनी ही दशा देखो, कोसल की महिषी बनी थीं, अब-- शक्तिमती-(क्रोध से)-मल्लिका, सावधान ! मैं जाती हूँ। (प्रस्थान) मल्लिका-गर्वीली स्त्री, तुझे राजपद की बड़ी अभिलाषा थी, किन्तु मुझे कुछ नही, केवल स्त्री-सुलभ सौजन्य और समवेदना तथा कर्तव्य और धैर्य की शिक्षा मिली है । भाग्य जो कुछ दिखावे । दृश्या न्त र चतुर्थ दृश्य [काशी में श्यामा अपने गृह में बैठी है] श्यामा-(स्वगत)-शैलेन्द्र ! यह तुमने क्या किया मेरी प्रणयलता पर कैसा वज्रपात किया ! अभागे बन्धुल को ही क्या पड़ी थी कि उसने द्वन्द्वयुद्ध का आह्वान स्वीकार कर लिया ! कोसल का प्रधान सेनापति छल से मारा गया है और उसी के हाथ से घायल होकर तुम भी बन्दी हुए। प्रिय शैलेन्द्र ! तुम्हे किस तरह बचाऊँ (सोचती है) समुद्रदत्त-(प्रवेश करते) श्यामा ! तम्हारे रूप की प्रशंसा सुनकर यहां चले आने का साहस हुआ है । क्या मैंने कुछ अनुचित किया ? श्यामा-(देखती हुई)-नही श्रीमान्, यह तो आपका घर है। श्यामा आतिथ्य-धर्म को भूल नही सकती-यह कुटीर आपकी सेवा के लिए सदैव प्रस्तुत है। मम्भवतः आप परदेसी है और इस नगर में नवागत व्यक्ति है। बैठिये--क्या आज्ञा है ? समुद्रगुप्त-(बैठता हुआ)-हाँ सुन्दरि, मै नवागत व्यक्ति हूँ, किन्तु एक बार और आ चुका हूँ-तभी तुम्हारे रूप की ज्वाला ने मुझे पतंग बनाया था, अब उसमें जलने के लिए आया हूँ। भला इतनी सी कृपा होगी? श्यामा-मैं आपसे विनती करती हूँ के पहले आप ठण्ठे होइये और कुछ थकावट मिटाइये, फिर बातें होंगी। विजया ! श्रीमान् को विश्राम-गृह मे लिवा जा। [विजया आती है और समुद्रदत्त को लिवा जाती है] अजातशत्रु : २४१