पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२६३

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फूलों पर आनन्द भैरवी गाते मधुकर वृन्द, बिखर रही है किस यौवन की किरण, खिला अरविन्द, ध्यान है किसके आनन का नन्दन कानन का, रसीला नन्दन कानन का ॥चला है। उषा सुनहला मद्य पिलाती, प्रकृति बरसती फूल, मतवाले होकर देखो तो विधि-निषेध को भूल, आज कर लो अपने मन का। नन्दन कानन का रसीला नन्दन कानन का ॥चला है०॥ समुद्रदत्त-अहा ! श्यामा का-सा कण्ठ भी है। सुन्दरी, तुम्हारी जैसी प्रशंसा सुनी थी, वैसी ही तुम हो ! एक बार इस तीव्र मादकता को और पिला दो । पागल हो जाने के लिए इन्द्रियाँ प्रस्तुत हैं । [श्यामा इंगित करती है, सब जाते हैं] श्यामा-क्षमा कीजिये, मैं इस समय बड़ी चिन्तित हूँ, इस कारण आपको प्रसन्न न कर सकी। अभी दासी ने आकर एक बात ऐसी कही है कि मेरा चित्त चञ्चल हो उठा। केवल शिष्टाचारवश इस समय मैंने आपको गाना सुनाया- समुद्रदत्त-वह कैसी बात है, क्या मैं भी सुन सकता हूँ? श्यामा-(संकोच से) -आप अभी तो विदेश मे आ रहे हैं, मुझसे कोई घनिष्ठता भी नहीं, तब कैसे अपना हाल कहूँ। समुद्रदत्त-सुन्दरि ! यह तुम्हारा संकोच व्यर्थ है। श्यामा-मेरा एक सम्बन्धी किसी अपराध में बन्दी हुआ है, दण्डनायक ने कहा है कि यदि रात-भर में मेरे पाम हजार मोहरें पहुँच नाय. तो मैं इसे छोड़ दूंगा नहीं तो नहीं। (रोती है) समुद्रदत्त-तो इसमें कौन-सी चिन्ता की बात है। मैं देता हूँ; इन्हें भेज दो। (स्वगत)-मैं भी तो षड्यंत्र करने आया हूं- इमी तरह दो-चार अन्तरंग मित्र बना लूंगा, जिसमें समय पर काम आवें । दण्डनायक से भी समझ लूंगा-कोई चिंता नहीं। श्यामा-(मोहरों की थैली देकर)-तो दासी पर दया करके इसे दे आइये, क्योंकि मै किस पर विश्वास करके इतना धन भेज दूं! और यदि आपको पहचाने जाने की शंका हो तो मै आपका अभी वेश बदल दे सकती हूँ। समुद्रदत्त-अजी, मोहरें तो मेरे पास है, इनकी क्या आवश्यकता हैं ? श्यामा-आपकी कृपा है। वह भी मेरी ही है, किन्तु इन्हें ही ले जाइये; नही तो आप इसे भी वार-वनिताओं की एक चाल समझियेगा । अजातशत्रु : २४३