पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२६४

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समुद्रदत्त T-भला यह कैसी बात-सुन्दरी श्यामा, तुम मेरी हंसी उड़ाती हो। तुम्हारे लिए प्राण प्रस्तुत हैं । बात इतनी ही है कि वह मुझे पहचानता है। श्यामा-नही, यह तो मेरी पहली बात आपको माननी ही होगी। इतना बोझ मुझ पर न दीजिये कि मैत्री में चतुरता की गन्ध आने लगे और हम लोगों को एक- दूसरे पर शंका करने का अवकाश मिले । मै आपका वेश बदल देती हूँ। समुद्रदत्त-अच्छा प्रिये ! ऐसा ही होगा। मेरा वेश-परिवर्तन करा दो। [श्यामा वेश बदलती है और समुद्रदत्त मोहरों को थैली लेकर अकड़ता हुआ जाता है] श्यामा-जाओ बलि के बकरे, जाओ ! फिर न आना। मेरा शैलेन्द्र, मेरा प्यारा शैलेन्द्र ! तुम्हारी मोहिनी छवि पर निछावर प्राण है मेरे अखिल भूलोक बलिहारी मधुर मृदु हास पर तेरे [प्रस्थान] दृश्या न्त र पंचम दृश्य [सेनापति बन्धुल का गृह, मल्लिका और वासी] मल्लिका-संसार में स्त्रियों के लिये पति ही सब कुछ है, किन्तु हाय ! आज मैं उसी सोहाग से वंचित हो गयी हूँ। हृदय थरथरा रहा है, कण्ठ भरा आता है- एक निर्दय चेतना सब इन्द्रियों को अचेतन और शिथिल बनाये दे रही है। आज ! (व्हरकर और निःश्वास लेकर) हे प्रभु ! मुझे बल दो-विपत्तियों को सहन करने के लिए -बल दो ! मुझे विश्वास दो कि तुम्हारी शरण जाने पर कोई भय नहीं रहता, विपत्ति और दुःख उस आनन्द के दास बन जाते हैं, फिर सांसारिक आतंक उसे नही डरा सकते । मैं जानती हूँ कि मानव-हृदय अपनी दुर्बलताओं में ही सबल होने का स्वांग बनाता है किन्तु मुझे उस बनावट से, उस दम्भ से, बचा लो ! शान्ति के लिए साहस दो-बल दो ! दासी-स्वामिनी, धैर्य धारण कीजिये । मल्लिका-सरला ! धैर्य न होता, तो अब तक यह हृदय फट जाता-यह शरीर निस्पन्द हो जाता। यह वैधव्य-दु.ख नारी-जगति के लिए कैसा कठोर अभिशाप है, किसी भी स्त्री को इसका अनुभव न करना पड़े। दासी-स्वामिनी, इस दुःख में भगवान् ही सान्त्वना दे सकेंगे-उन्हीं का अवलम्ब है। २४४ : प्रमाद वाङ्मय