पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२६६

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धातुपात्र था ! (मल्लिका से)-तुम्हारा धैर्य सराहनीय है। आनन्द ! तो इस मूर्तिमती धर्म-परायणता से कर्तव्य की शिक्षा लो। आनन्द-महिमामयी ! अपराध क्षमा हो। आज मुझे विश्वास हुआ कि केवल काषाय धारण कर लेने से ही धर्म पर एकाधिकार नहीं हो जाता-यह तो चित- शुद्धि से मिलता है। मल्लिका-पतितपावन की अमोघ वाणी ने दृश्यों की नश्वरता की घोषणा की है। अब मुझे वह मोह की दुर्बलता-सी दिखाई पड़ती है। उस धर्म-शासन से कभी विद्रोह न करूंगी, वह मानव का पवित्र अधिकार है, शान्तिदायक धैर्य का साधन है, जीवन का विश्राम है-(पैर पकड़ती है)-महापुरुष ! आशीर्वाद दीजिये कि मैं इससे विचलित न होऊँ। सारिपुत्र-उठो देवि ! उठो ! तुम्हें मैं क्या उपदेश करूँ ? तुम्हारा चरित्र, धैर्य का कर्तव्य का-स्वयं आदर्श है । तुम्हारे हृदय मे अखण्ड शान्ति है । हाँ, तुम जानती हो कि तुम्हारा शत्रु कौन है-तब भी विश्वमंत्री के अनुरोध से, उससे केवल उदासीन ही न रहो, प्रत्युत द्वेष भी न रखो। [महाराजा प्रसेनजित् का प्रवेश] प्रसेनजित्-महास्थविर ! मैं अभिवादन करता हूँ। मल्लिका देवी, मैं क्षमा मांगने आया हूं। मल्लिका - स्वागत महाराज ! क्षमा किस बात की ? प्रसेनजित्-नही- मैने अपराध किया है । सेनापति बन्धुल के प्रति मेरा हृदय शुद्ध नही था इसलिये उनकी हत्या का पाप मुझे भी लगता है। मल्लिका-यह अब छिपा नही है महाराज ! प्रजा के साथ आप इतना छल, इतनी प्रवञ्चना और कपट-व्यवहार रखते है ! धन्य है । प्रसेनजित्-मुझे धिक्कार दो- मुझे शाप दो--मल्लिका ! तुम्हारे मुखमण्डल पर तो ईर्ष्या और प्रतिहिंसा का चिह्न भी नही है। जो तुम्हारी इच्छा हो कहो, मैं उसे पूर्ण करूँगा। मल्लिका-(हाथ जोड़कर)-कुछ नही महाराज ! आज्ञा दीजिये कि आपके राज्य मे निर्विघ्न चली जाऊँ; किसी शान्तिपूर्ण स्थान मे रहूँ। ईर्ष्या से आपका हृदय प्रलय के मध्याह्न का सूर्य हो रहा है, उसकी भीषणता से बचकर किसी छाया में विश्राम करूँ और कुछ भी मैं नहीं चाहती। सारिपुत्र-मूर्तिमती करुणे ! तुम्हारी विजय है। (हाथ जोड़ता है) दृश्या न्त र २४६ : प्रसाद वाङ्मय