पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२६७

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षष्ठ दृश्य [महाराज बिम्बिसार का गृह, बिम्बिसार और वासवी] बिम्बिसार-रात में ताराओं का प्रभाव विशेष रहने से चन्द्र नही दिखायी देता और चन्द्रमा का तेज बढ़ने से तारे सब फीके पड़ जाते हैं, क्या इसी को शुक्ल- पक्ष और कृष्णपक्ष कहते हैं ? देवि ! कभी तुमने इस पर विचार किया है । वासवी-आर्यपुत्र ! मुझे तो विश्वास है कि नीला पर्दा इसका रहस्य छिपाये हैं, जितना चाहता है, उतना ही प्रकट करता है। कभी निशाकर को छाती पर लेकर खेला करता है, कभी ताराओं को बिखेरता और कृष्णा कुहू के साथ क्रीड़ा करता है। बिम्बिसार--और कोमल पत्तियों को, जो अपनी डाली मे निरीह लटका करती है, प्रभजन क्यों झिंझोड़ता है ? वासवी-उसकी गति है, वह किसी से कहता नही है कि तुम मेरे मार्ग में अड़ो; जो साहस करता है, उसे हिलना पड़ता है। नाथ ! समय भी इसी तरह चला जा रहा है, उसके लिये पहाड़ और पत्ती बराबर है। बिम्बिसार-फिर उसकी गति तो सम नही है, ऐसा क्यों ? वासवी--यही समझाने के लिए बड़े-बड़े दार्शनिकों ने कई तरह की व्याख्यायें की हैं, फिर भी प्रत्येक नियम में अपवाद लगा दिये है। यह नहीं कहा जा सकता कि यह अपवाद नियम पर है, या नियामक पर . सम्भवतः उसे ही लोग बवण्डर कहते हैं। बिम्बिसार-तब तो देवि ! प्रत्येक असम्भावित घटना के मूल में यही बवण्डर है। सच तो यह है कि विश्व-भर मे स्थान-स्थान पर वात्याचक्र है; जल में उसे भंवर कहते हैं, स्थल पर उसे बवण्डर कहते है, राज्य में विप्लव, समाज में उच्छृखलता और धर्म में पाप कहते है। चाहे इन्हे नियमों का पवाद कहो, चाहे बवण्डर-यही न? [छलना का प्रवेश बिम्बिसार--यह लो, हम लोग तो बवण्डर की बातें करते थे, तुम यहाँ कैसे पहुँच गयी ! राजमाता महादेवी को इस दरिद्र-कुटीर में क्या आवश्यकता हुई ? छलना--मैं बवण्डर हूँ-इसीलिये जहाँ मैं चाहती हूँ, असम्भावित रूप से चली जाती हूँ और देखना चाहती हूँ कि इस प्रवाह मे कितनी सामर्थ्य है--इसमे आवर्त उत्पन्न कर सकती हूँ कि नही ! वासवी छलना ! बहिन ! तुमको क्या हो गया है ? अजातशत्रु : २४०