पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२६८

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छलना-प्रमाद--और क्या। अभी सन्तोष नहीं हुआ? इतना उपद्रव करो चुकी हो, और भी कुछ शेष है ? वासवी क्यों, अजात तो अच्छी तरह है ? कुशल तो है ? छलना-क्या चाहती हो? समुद्रदत्त काशी में मारा ही गया। कोसल और मगध में युद्ध हो रहा है । अजात भी उसमें गया है । साम्राज्य-भर में आतंक है। बिम्बिसार-युद्ध में क्या हुआ ? (मुंह फिराकर) -अथवा मुझे क्या? छलना-शैलेन्द्र नाम के डाकू ने द्वन्द्वयुद्ध में आह्वान करके फिर धोखा देकर कोसल के सेनापति को मार डाला। सेनापति के मर जाने से सेना घबरायी थी, उसी समय अजात ने आक्रमण कर दिया और विजयी हुआ-काशी पर अधिकार हो गया। वासवी -तब इतना घबराती क्यों हो? अजात को रण-दुर्मद साहसी बनाने के लिए ही तो तुम्हे इतनी उत्कण्ठा थी। राजकुमार को तो ऐसी उद्धत शिक्षा तुम्ही ने दी थी, फिर उलाहना क्यों ? छलना-उलाहना क्यों न दूं--जब कि तुमने जान-बूझकर यह विप्लव खड़ा किया है। क्या तुम इसे नही दबा सकती थी; क्योकि वह तो तुम्हारे पिता से तुम्हे मिला हुआ प्रान्त था। वासवी--जिसने दिया था, यदि वह ले ले, तो मुझे क्या अधिकार है कि मैं उसे न लौटा दूं? तुम्ही बतलाओ कि मेरा अधिकार छीनकर जब आर्यपुत्र ने तुम्हे दे दिया, तब भी मैंने कोई विरोध किया था ? छलना-यह ताना सुनने में नही आयी हूँ। वासवी, तुमको तुम्हारी असफलता सूचित करने आयी हूँ। बिम्बसार-तो राजमाता को कष्ट करने की क्या आवश्यकता थी ? यह तो एक सामान्य अनुचर भी कर सकता था। छलना--किन्तु वह मेरी जगह तो नही हो सकता था और सन्देश भी अच्छी तरह से नही कहता। वासवी के मुख की प्रत्येक सिकुडन पर इस प्रकार लक्ष्य न रखता, न तो वासवी को इतना प्रसन्न ही कर सकता। बिम्बसार-(खड़े होकर)-छलना ! मैंने राजदण्ड छोड़ दिया है; किन्तु मनुप्यता ने अभी मुझे नही परित्यक्त किया है। सहन की भी सीमा होती है । अधम नारी ! चली जा । तुझे लज्जा नहीं-बर्बर लिच्छिवि-रक्त ! वासवी-वहिन ! जाओ, सिंहासन पर बैठकर राजकार्य देखो। व्यर्थ झगड़ने से तुम्हें क्या सुख मिलेगा? और अधिक तुम्हें क्या कहूँ; तुम्हारी बुद्धि ! [छलना जाती है]] . २४८: प्रसाद वाङ्मय