पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२७

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सो चञ्चला अमि जब चमक लगेगी, तेरो सुरक्त करि पान महा पगेगी। गन्धर्व --अच्छा फिर बचाओ अपने को ! (मब तलवार निकाल कर लड़ते हैं। युद्ध में कर्ण सबको भगाने का साहस करता है और विक्रम दिखाता है। इतने में पीछे से राक्षसों की सेना आती है और सबको घेर लेती है) [पट-परिवर्तन तृतीय दृश्य आकाश राते। [स्थान-कानन, पर्ण-कुटीर]] [चारों ओर शान्ति विराज रही है। एक सघन वृक्ष के नीचे युधिष्ठिर और अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रौपदी के सहित बैठे हुये हैं] युधिष्ठिर -अहा ! प्रकृति की गति कैमी अनोखी है मध्याह्न में महत तेज लखात नाको, मध्य कोउ देखि सके न जाको। सो दिव्य देव दिननाथ लहै प्रतीची, हूं के सुरञ्जित लखात सर्व नगीची। अर्जुन-महाराज, यह तो ठीक ही है जो जाइ पश्चिम दिशा महं मोद माते, ह्व वारुणी विवस माह तरंग देखे तिन्हैं पतित लोग सबै हँसाहीं, प्राची दिशा शशि मिसै हँसती सदा ही। द्रौपदी-तो इमसे क्या- आदित्य के उदय के पहले निशा गे। घोरान्धकार बढ़ि जात लखौ अमा मे ॥ उद्योग में तदपि घूमत आस धारे। ह्र अस्त है उदय होत प्रभू सहारे ॥ नकुल और सहदेव आर्य ! प्याम लगी है। युधिष्ठिर -(मुंह फेर कर) हा देव !" यही सब देखना है । हाय हाय ! ये सुकुमार राजकुमार और यह कराल कानन- जिन कबहुँ न दीन्हें पाँवह को धरा मे। तिन ममिध वटोर औ क मृत्यका में । १४. इस नीच को सज्जन · ११