पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२७०

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सप्तम दृश्य - [कोसल की सीमा पर मल्लिका की कुटी के द्वारों पर मल्लिका और दीर्घकारायण] दीर्घकारायण-नहीं, मैं कभी इसका अनुमोदन नही कर सकता ! आप चाहे इसे धर्म समझें; किन्तु सांप को जीवनदान करना कभी भी लोकहितकर नहीं है । मल्लिका [-कारायण ! तुम्हारा रक्त अभी बहुत खौल रहा है। तुम्हारी प्रतिहिंसा की बर्बरता वेगवती है, किन्तु सोचो, विचारो, जिसके हृदय में विश्वमंत्री के द्वारा करुणा का उद्रेक हुआ है, उसे अपकार का स्मरण क्या कभी अपने कर्तव्य से विचलित कर सकता है ? दीर्घकारायण -आप देवी है। सौरमण्डल से भिन्न जो केवल कल्पना के आधार पर स्थित है, उस जगत् की बातें आप मोच सकती हैं। किन्तु हम इस संघर्षपूर्ण जगत् के जीव हैं, जिसमे कि शून्य भी प्रतिध्वनि देता है, जहां किसी को वेग से कंकडी मारने पर वही ककड़ी--मारने वाले की ओर--लौटने की चेष्टा करती है । इसलिये मैं तो यही कहूंगा कि इस मरणासन्न-घमण्डी और दुर्वृत्त कोसल- नरेश की रक्षा आपको नहीं करनी चाहिये । मल्लिका --अपना कर्तव्य मैं अच्छी तरह जानती हूँ। करुण की विजय-पताका के नीचे हमने प्रयाण करने का दृढ़ विचार करके उसकी अधीनता स्वीकार कर ली है। अब एक पग भी पीछे हटने का अवकाश नही। विश्वासी सैनिक के समान नश्वर जीवन का बलिदान करूंगी-कारायण ! दीर्घकारायण -तब मैं जाता हूँ-जैसी इच्छा ! मल्लिका-ठहरो, मैं तुमसे एक बात पूछना चाहती हूँ। क्या तुम इस युद्ध में नही गये थे ? क्या तुमने अपने हाथों से जान-बूझकर कोसल को पराजित होने नहीं दिया? क्या सच्चे सैनिक के समान ही तुम इस रण-क्षेत्र मे खड़े थे और तब भी कोसलनरेश की यह दुर्दशा हुई ? जब तुम इस लघु सत्य को पालने में असमर्थ हुए, तब तुमसे और महान् स्वार्थ-त्याग की क्या आशा की जाय ! मुझे विश्वास है कि यदि कोसल की सेना अपने सत्य पर रहती, तो यह दुःखद घटना न होने पाती। दीर्घकारायण-इसमें मेरा क्या अपराध है ? जैसी सबकी वैसी ही मेरी भी इच्छा थी। (कुटी से घायल प्रसेनजित् निकलता है) प्रसेनजित्-देवि, तुम्हारे उपकारों का बोझ मुझे असह्य हो रहा है। तुम्हारी तलता ने इस जलते हुए लोहे पर विजय प्राप्त ली है। बार-बार क्षमा मांगने पर हृदय को सन्तोष नही होता । अब में श्रावस्ती जाने की आज्ञा चाहता हूँ। २५०: प्रसाद वाङ्मय