पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२८४

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अजातशत्रु-तुम चाहे प्रसेनजित् की ही कन्या क्यों न हो; किन्तु मैं तुमसे असन्तुष्ट न हूँगा; मेरी समस्त श्रद्धा अकारण तुम्हारे चरणों पर लोटने लगी है, सुन्दरि! बाजिरा-मैं वही हूँ राजकुमार ! कोसल की राजकुमारी। मेरा ही नाम बाजिरा है। अजातशत्रु-सुनता था कि प्रेम द्रोह को पराजित करता है। आज विश्वास भी हो गया। तुम्हारे उदार प्रेम ने मेरे विद्रोही हृदय को विजित कर लिया। अब पदि कोसल-नरेश मुझे बन्दीगृह से छोड़ दें तब भी""" बाजिरा -तब भी क्या? अजातशत्रु-मैं कैसे जा सकूँगा ? बाजिरा- (ताली निकाल कर जंगला खोलती है, अजात बाहर आता है)-अब तुम जा सकते हो। पिता की सारी झिड़कियां मैं सुन लूंगी। उनका समस्त क्रोध मैं अपने वक्ष पर वहन करूंगी। राजकुमार, अब तुम मुक्त हो, जाओ ! अजातशत्रु-यह तो नहीं हो सकता। इस प्रकार के प्रतिफल में तुम्हें अपने पिता से तिरस्कार और भर्त्सना ही मिलेगी। शुभे ! अब यह तुम्हारा चिर-बन्दी मुक्त होने की चेष्टा भी न करेगा। बाजिरा--प्रिय राजकुमार ! तुम्हारी इच्छा, किन्तु फिर मैं अपने को रोक न सकूगी और हृदय की दुर्बलता या प्रेम की सबलता मुझे व्यथित करेगी। अजातशत्रु-राजकुमारी ! तो हम लोग एक-दूसरे को प्यार करने के अयोग्य हैं, ऐसा कोई मूर्ख भी न कहेगा। बाजिरा -तब प्राणनाथ ! मैं अपना सर्वस्व तुम्हें समर्पण करती हूं-(अपनी माला पहनाती है) अजातशत्रु-मैं अपने समेत उसे तुम्हें लोटा देता हूँ प्रिये ! हम तुम अभिन्न हैं। यह जंगली हिरन-इस स्वर्गीय संगीत पर-चौकड़ी भरना भूल गया है। अब यह तुम्हारे प्रेम-पाश में पूर्णरूप से बद्ध है । (अंगूठी पहनाता है) [दीर्घकारायण का सहसा प्रवेश] दीर्घकारायण-यह क्या ! बन्दीगृह में प्रेमलीला। राजकुमारी ! तुम कैसे यहाँ आयी हो ? क्या राजनियम की कठोरता भूल गयी हो? बाजिरा-इसका उत्तर देने के लिए मैं वाध्य नहीं हूँ। दीर्घकारायण-किन्तु यह काण्ड एक उत्तर की आशा करता है। वह मुझे नहीं तो महाराज के समक्ष देना ही होगा। बन्दी, तुमने ऐसा क्यों किया? अजातशत्रु-मैं तुमको उत्तर नहीं देना चाहता। तुम्हारे महाराज से मेरी प्रतिद्वन्द्विता है-उनके सेवकों से नहीं। २६४: प्रसाद वाङ्मय