पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२९३

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प्रसेनजित्-किन्तु वह राष्ट्र का द्रोही है, क्यों धर्माधिकारी, उसका क्या - धर्माधिकारी-(सिर नीचा कर)-महाराज मल्लिका-राजन्, विद्रोही बनाने के कारण भी आप ही है। बनाने पर विरुद्धक राष्ट्र का एक सच्चा शुभचिंतक हो सकता था। और इससे क्या, मैं तो स्वीकार करा चुकी हूँ कि भयानक अपराध भी मार्जनीय होते है । प्रसेनजित् -तब विरुद्धक को क्षमा किया जाय ! विरुद्धक-पिता, मेरा अपराध कौन क्षमा करेगा ? पितृद्रोही को कौन ठिकाना देगा ? मेरी आँखें लज्जा से ऊपर नही उठती। मुझे राज्य नही चाहिये; चाहिये केवल आपकी क्षमा-पृथ्वी के साक्षात् देवता ! मेरे पिता ! मुझ अपराधी पुत्र को क्षमा कीजिये । (चरण पकड़ता है) प्रसेनजित्-धर्माधिकारी ! पिता का हृदय इतना सदय होता है कि नियम उसे क्रूर नहीं बना सकता। मेरा पुत्र मुझसे क्षमा-भिक्षा चाहता है, धर्मशास्त्र के उस पन्ने को उलट दो, मैं एक बार अवश्य क्षमा कर दूंगा। उसे न करने से मैं पिता नही ह सकता--मैं जीवित नहीं रह सकता। धर्माधिकारी -किन्तु महाराज ! व्यवस्था का भी कुछ मान रखना चाहिये । प्रसेनजित्-यह मेरा त्याज्य पुत्र है। किन्तु अपराध का दण्ड मृत्युदण्ड, नही- वह किसी राक्षस पिता का काम है । वत्स विरुद्धक ! उठो, मै तुम्हे क्षमा करता हूँ। (विरुद्धक को उठाता है) [गौतम का प्रवेश] सब -भगवान् के चरणों मे प्रणाम । गौतम-विनय और शील की रक्षा करने मे सब दत्तचित्त रहें, जिससे प्रजा का कल्याण हो -करुणा की विजय हो। आज मुझे सन्तोष हुग, कोसल-नरेश ! तुमने अपराधी को क्षमा करना सीख लिया, यह राष्ट्र के लिए कल्याण की बात हुई । फिर भी तुम इसे त्याज्य पुत्र क्यो कह रहे हो ? प्रसेनजित्-महाराज, यह दासीपुत्र है, सिहासन का अधिकारी नही हो सकता। . गौतम--यह दम्भ तुम्हारा प्राचीन संस्कार है । क्यों राजन् । क्या दास, दासी, मनुष्य नही है ? क्या कई पीढ़ी ऊपर तक तुम प्रमाण दे सकते हो कि सभी राजकुमारियों की सन्तान ही इस सिहासन पर बैठी है या प्रतिज्ञा करोगे कि आने वाली कई पीढी तक दासी-पुत्र इस पर न बैठने पावेगे? यह छोटे-बड़े का भेद क्या अभी इस संकीर्ण हृदय मे इस तरह घुसा है कि निकल नही सकता ? क्या जीवन की वर्तमान स्थिति देखकर प्राचीन अन्धविश्वासों को, जो न जाने किस कारण होते अजातशत्रु : २७३