पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२९६

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उपस्थित कर देते हैं ! कहाँ साधारण ग्राम्यवाला-हो गयी थी राजरानी ! मैं देख आया-वही मागन्धी ही तो है। अब आम की बारी लेकर बेचा करती है और लड़कों के ढेले खाया करती है। ब्रह्मा भी कभी भोजन करने के पहले मेरी ही तरह भांग पी लेते होंगे, तभी तो ऐसा उलटफेर "ऐं, किन्तु, परन्तु, तथापि, वही कहावत 'पुनर्मूषिको भव' ! एक चूहे को किसी ऋषि ने दया करके व्याघ्र बना दिया, वह उन्हीं पर गुर्राने लगा। जब झपटने लगा तो चट से बाबा जी बोले-'पुनर्मू षिको भव'- '-जा बच्चा, फिर चूहा बन जा। महादेवी वासवदसा को यह समाचार चलकर सुनाऊंगा। अरे उसी के फेर मे मुझे देर हो गयी। महाराज ने बैवाहिक उपहार भेजे थे, सो अब तो मैं पिछड़ गया। लड्डू तो मिलेगे। अजी बासी होंगे तो क्या मिलेगे तो। ओह, नगर में तो आलोक-माला दिखाई देती है ! सम्भवतः वैवाहिक महोत्सव का अभी अन्त नहीं हुआ। तो चलूं। (जाता है) दृश्या न्त र सप्तम दृश्य [आम्र कानन में आम्रपाली-मागन्धी] मागन्धी-(आप-ही-आप)-वाह री नियति ! कैसे कैसे दृश्य देखने में आये-कभी बैलों को चारा देते-देते हाथ नही थकते थे, कभी अपने हाथ से जल का पात्र तक उठा कर पीने में संकोच होता था, कभी शील का बोझ एक पैर भी महल के बाहर चलने में रोकता था और कभी निर्लज्ज गणिका का आमोद मनोनीत हुआ ! इस बुद्धिमत्ता का क्या ठिकाना है | वास्तविक रूप के परिवर्तन की इच्छा मुझे इतनी विषमता मे ले आयी। अपनी परिस्थिति को संयत न रखकर व्यर्थ महत्त्व का ढोंग मेरे हृदय ने किया, काल्पनिक सुख-लिप्सा में ही पड़ी--उसी का यह परिणाम है। स्त्री-सुलभ एक स्निग्धता, सरलता की मात्रा कम हो जाने से जीवन में कैसे बनावटी भाव आ गये ! जो अब केवल एक संकोचदायिनी स्मृति के रूप में अवशिष्ट रह गये । (गाती है) स्वजन दीखता न विश्व मे अब, न बात मन मे समाय कोई । पड़ी अकेली विकल रो रही, न दुःख मे है सहाय कोई॥ पलट गये दिन सनेह वाले, नही नशा, अब रही न गर्मी। न नीद सुख की, न रंगरलियां, न सेज उजला बिछाय सोई॥ बनी न कुछ इस चपल चित्त की, बिखर गया मूठ गर्व जो पा। असीम चिन्ता चिता बनी है, विटप कंटीले लगाय रोई॥ क्षणिक वेदना अनन्त सुख बस, समझ लिया शून्य में बसेरा। पवन पकड़कर पता बताने न लौट आया न जाय कोई ।। - २७६ : प्रसाद वाङ्मय