पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२९८

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अष्टम दृश्य [प्रकोष्ठ में पद्मावती और छलना] छलना-बेटी ! तुम बडी हो, मैं बुद्धि में तुमसे छोटी हूँ। मैंने तुम्हारा अनादर करके तुम्हे भी दुःख दिया और भ्रान्त पथ पर चल कर स्वयं भी दुःखी हुई। पद्मावती–मुझे लज्जित न करो माँ ! तुम क्या मां नही हो ! मां, भाभी के बच्चा हुआ है-अहा कैसा सुन्दर नन्हा-सा बच्चा ! छलना -पद्मा ! तुम और अजात सहोदर भाई-बहन हो, मैं तो सचमुच एक बवण्डर हूँ । बहिन वासवी क्या मेरा अपराध क्षमा कर देगी? [वासवी का प्रवेश छलना-(पैर पर गिरकर)-कुणीक की तुम्ही वास्तव मे जननी हो, मुझे बोझ ढोना था। पद्मावती-मां ! छोटी मां पूछती है, क्या मेरा अपराध क्षम्य है ? वासवी-(मुस्करा कर)-कभी नही इमने कुणीक को उत्पन्न करके मुझे बडा सुख दिया, जिसका इस छोटे से हृदय से मै उपभोग नही कर सकती। इसलिये मैं इसे क्षमा नही करूंगी। छलना-(हँस कर)-तब तो बहिन, मैं भी तुमसे लडाई करूंगी, क्योकि मेरा दुःख हरण करके तुमने मुझे खोखली कर दिया है, हृदय हल्का होकर वेकाम हो गया है। अरे, सपत्नी का काम तो तुम्ही ने कर दिखाया। पति को तो बस मे किया ही था, मेरे पुत्र को भी गोद मे लिया । मै...। वासवो-छलना। तू नही जानती, मुझे एक बच्चे की आवश्यकता थी, इसलिये तुझे नौकर रख लिया था-अब तो तेरा काम नही है । छलना बहिन, इतनी कठोर न हो जाओ। वासवी-(हँसती हुई) -अच्छा जा, मैने तुझे अपने बच्चे की धात्री बना दिया। देख, अब अपना काम ठीक से करना, नहीं तो फिर छलना-(हाथ जोड़कर) अच्छा स्वामिनी ! पद्मावती-क्यो मां, अजात तो यहाँ अभी नही आया ! वह क्या छोटी मां के पास नही आवेगा? वासवी -पमा ! जब उसे पुत्र हुआ, तब उससे कैसे रहा जाता। वह सीधे श्रावस्ती से महाराज के मन्दिर मे गया है। सन्तान उत्प होने पर अब उसे पिता के स्नेह का मोल समझ पड़ा है। २७८:प्रमाद वाङ्मय