पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३०

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सेनापति -(आगे निकल कर, 'खड़ा हो जाता है) हम हैं हम। तुम्हें क्या कहना है ? अर्जुन - यही कि यदि अपनी कुशल चाहते हो, तो इन लोगों को छोड़ दो। सेनापति -वाह ! वाह ! आप छुडाने आये हैं, दर्पण तो यहां मिलेगा नहीं, द्वैत सरोवर के जल में जरा मुंह देख आओ ! अर्जुन - (क्रोधित होकर)- कंटक नहिं पददलित होत मारग में जो लौं। मुख की तीछनता को त्यागत है नहिं तो लौं। नीच प्रकृति जन मानत नाहिन हैं बातन ते । य२८ पूजा के जोग९ सदा ही है लातन ते । दुष्टों ! फिर भी समझाता हूँ --मान लो। इन लोगों को छोड़ दो। दुर्योधन - मैं तुम्हारी दया नही चाहता। कर्ण -(सगर्व)- महै अनेकन दाण्ट पे, लहै सदा ही मान । अरि मों दया न चाहते, साँचे पीर महान । अर्जुन-(शिर हिलाकर)-मैं तुममे कुछ नही कहना चाहता । (विद्याधरों से) हां इतनी देर मे क्या सोचा ? सेनापति -जा जा, अपना काम कर। अर्जुन -(दांत पीस कर)- ह रक्षहु आपने को। देखो प्रचण्ड भुजदण्ड बल घनों को। बैरी कराल दाहन ज्वालिका-मी। मेरी अहे सुश्रमि विद्युत मालिका-सी ॥ [अर्जुन तलवार निकाल कर आक्रमण करता है, और" सब दुर्योधनादि को घेर कर लड़ते हैं। किन्तु घोर युद्ध के उपरान्त अर्जुन" से व्यथित होकर सब भागते हैं, और उसी समय चित्रसेन का प्रवेश होता है। अर्जुन उस पर भी झपटता है। चित्रसेन हट कर वार करता है। दोनों में द्वन्द्व युद्ध होता है।] चित्रसेन [-बम मित्र वम, बहुत हुआ। सावधान सत्र वन २७. नाहिं २२. योग २६. तनकर ३१. की तलवार हो जाता है यह ३०. वे अन्त में अर्जुन चित्रमेन को पटक कर छाती पर सवार ३ . १४ : प्रसाद बाकाय