पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३००

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भयानक भावुकता और उद्वेगजनक अन्त.करण लेकर क्यों तू व्यग्र हो रहा है ? जीवन की शान्तिमयी सच्ची परिस्थिति को छोड़ कर व्यर्थ के अभिमान मे तू कब तक पडा रहेगा? पदि मैं सम्राट् न होकर किसी विनम्र लता के कोमल किसलयों के झुरमुट मे एक अधखिला फूल होता और संसार की दृष्टि मुझ पर न पडती- पवन की किसी लहर को सुरभित करके धीरे से उस थाले मे चू पड़ता-तो इतना भीषण चीत्कार इस विश्व मे न मचता। उस अस्तित्व को अनस्तित्व के साथ मिलाकर कितना सुखी होता ! भगवान्, असंख्य ठोकरे खाकर लुढकते हुए जड़ ग्रहपिण्डों से भी तो इस चेतन मानव की बुरी गति है। धक्के पर धक्के खाकर भी यह निर्लज्ज, सभा से नही निकलना चाहता। कैसी विचित्रता है ! अहा ! वासवी भी नही है। कब तक आवेगी ? जीवक-(प्रवेश करके)-सम्राट् । बिम्बिसार-चुप । यदि मेरा नाम न जानते हो, तो मनुष्य कह कर पुकारो। वह भयानक सम्बोधन मुझे न चाहिये । जीवक-कई रथ द्वार पर आये है और राजकुमार कुणीक भी आ रहे है । बिम्बिसार-कुणीक कौन ! मेरा पुत्र या मगध का मम्राट् अजातशत्रु ? अजातशत्र -(प्रवेश करके)-पिता, आपका पुत्र यह कुणीक सेवा मे प्रस्तुत है । (पैर पकड़ता है)। विम्बिसार--नही, नही, मगधराज अजातशत्रु को सिंहासन की मर्यादा नही भंग करनी चाहिए । आह, मेरे दुर्बल-चरण छोड दो। अजातशत्र--नही पिता, पुत्र का यही सिहासन है। आपने सोने का झूठा सिंहासन देकर मुझे मत्य अधिकार से वञ्चित किया। अबाध्य पुत्र को भी कोन क्षमा कर सकता है ? बिम्बिसार -पिता | किन्तु, वह पुत्र को क्षमा करता है; सम्राट् को क्षमा करने का अधिकार पिता को कहाँ ? अजातशत्रु--नही पिता, मुझे भ्रम हो गया था। मुझे अच्छी शिक्षा नही मिली थी। मिला था केवल जगलीपन की स्वतन्त्रता का अभिमान-अपने को विश्व भर से स्वतन्त्र जीव समझने का झूठा आत्म-सम्मान । विम्बिसार वह भी तो तुम्हारे गुरुजन की ही दी हुई शिक्षा थी। तुम्हारी मां थी--राजमाता। अजातशत्रु - वह केवल मेरी माँ थी -एक सम्पूर्ण अंग का आधा भाग, उसमे पिता की छाया न थी पिता | इसलिये आधी शिक्षा अपूर्ण ही रही । छलना-(प्रवेश करके चरण पकड़ती है) -नाथ ! मुझे निश्चय हुआ कि वह मेरी उद्दण्डता यी । वह मेरी कूट-चातुरी थी, दम्भ का प्रकोप था। नारी-जीवन . २८०: प्रसाद वाङ्मय