पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

[सबको लिए अर्जुन का प्रवेश] अर्जुन-आर्य के चरणकमलों में सेवक का नमस्कार । युधिष्ठिर र-वत्स धनंजय !" निरन्तर विजयी हो ! [सब अभिनन्दन करते हैं] [युधिष्ठिर उठ कर दुर्योधनादिक का बंधन खोलते हैं। नेपथ्य में धर्मराज की जय-जय की ध्वनि होती है। फूलों की वर्षा होती है। सब यथोचित बैठते हैं] युधिष्ठिर-वत्स" दुर्योधन, सब कुशल है । दुर्योधन-(लज्जित होकर)-महाराज की कृपा से । चित्रसेन-महाराज सुरेन्द्र ने आपको आशीर्वाद कहा है। उन्हें कौरवपति का असत्परामर्श ज्ञात हो गया था, इस कारण उन्होने हमको भेजा। हमने इन्हें बहुत बार समझाया पर इन्होंने न माना, इस कारण इनके साथ हमें ऐसा व्यवहार करना पड़ा, अतएव क्षमा चाहते हैं। युधिष्ठिर-जाने दो उस वात को। देवराज से हमारा अभिवादन कहना और कहना हम उनकी कृपा के लिये कृतज्ञ हैं । चित्रसेन अच्छा महाराज ! (एक विद्याधर को इंगित करता है, और वह चला जाता है) युधिष्ठिर :-वत्म सुयोधन ! तुम गुरुजनों की आज्ञा के अनुकूल नहीं चलने, यह अच्छा नहीं करते। देखो, साम्राज्य का भार तुम्हारे ऊपर है, यह संसार में कैसा गुरुतर कार्य है ? यह स्वयं जानते हो किन्तु फिर भी ऐसी चूक तुमसे क्यों होती है, सो ज्ञात नहीं होता। संमार में राजा ईश्वर का प्रतिनिधि-स्वरूप समझा जाता है, अतएव तुम्हें बहुत समझ कर चलना चाहिए। खल को शामन कर शरासन दृढ़ करि धारे । अनुचर आस न रहे सिंहामन नित्य सुधारे ॥ पास न राख नीच, तिन्हैं नाशन हित सोचे । जासन मान प्रजा सा विश्वामन मोच ।। सबहीं सों नहिं लड़े अड़े नहिं नीचजनों से । नहिं आलस में पड़े कड़े बरत न जनों से ।। ३७. विजय ३८. वत्स सुयोधन, अच्छी तरह से रहे ? सब कुशल है ३९. अभिवादन किया है ४०. (नम्र होकर) १६ : प्रसाद वाङमय