पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३३

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तजि मर्याद न बढ़ चढ़ आभा नित दूनी । सबहिं मोद सो मढ़ बढ़ कीरति चौगूनी ।। और- नीति प्रीति युत प्रजा सों, पालत है जो राज । सिंहासन सोहत सदा, ताही को सुख साज ॥" युधिष्ठिर-जाओ राज्य करो। [विद्याधरी गण माला लिये हुये आती हैं और गाती हुई नाचती हैं] - धर्म को राज सदा जग होवै। सुख सों पूरि रहै पुहुमी यह नित नव मंगल होवै ॥ सत्कविता सज्जनता ही पर प्रेम सबहि को होवे। सज्जन की जय धर्मराज की विजय सदा ही होवै॥ धर्म को राज सदा जग हो - [युधिष्ठिर के गले में सब माला पहिराती हैं, सब धर्म की जय कहते हैं] [पटाक्षेप] ४१. [दुर्योधन सिर झुका लेता है | सज्जन : १७