पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३३२

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- शुद्ध नाद था बड़ा सुरीला, कोई विकृति न थी उसमें। कौन कल्पना करके उसमें मींड़ लगाकर गाता है। कल्प-कल्प की भांति दुःख को क्षण भर का सुख भला लगा। असि-धारा पर धरा हुआ सुख, उससे कैसा नाता है। दुख ने क्या दुख दिया तुझे, कुछ इसका कभी विचार किया। चौंक उठा तू झूठे दुखपर, कुछ भी तुझे न आता है । कारण, कर्म न भिन्न कही है, कर्म ! कर्म चेतनता है । खेल खेलने आया है तू, फिर क्यों रोने जाता है। इस जीवन को भिन्न मानकर क्षण-क्षण का विभाग करता। लीला से तू दुखी बन गया, लीला से सुख पाता है। तू स्वामी है, तू केवल है, स्वच्छ सदा तू निर्मल है। जो कुछ आवे, करता चल तू, कही न आता-जाता हे ।। आस्तीक -बहन, माणवक लौट आया है । यह उसी का-सा स्वर है । मैं जाऊँ, उससे मिल आऊँ। तुम अभी ठहरोगी न ? मणिमाला-हां भाई, मैंने इस झरने का बहना अभी जी भर नहीं देखा। तुम चलो, मैं भी थोड़ा ठहर कर आती हूँ ! [आस्तीक का प्रस्थान] जनमेजय-(प्रकट होकर)-अहा ! कैसा रमणीक स्थान है ! (मानो अभी देख पाया हो) अरे ! वन मे देवबाला-सी आप कौन है ? मणिमाला-मैं नागकन्या हूँ | क्या आप आतिथ्य चाहते है ? जनमेजय-शुभे ! क्या यहाँ ऐमा स्थान है ? मणिमाला-आर्य ! समीप ही में महर्षि च्यवन का आश्रम है। मेरा भाई उन्ही के गुरुकुल मै पढ़ता है । मैं भी थोड़े दिनों के लिए यही आ गई हूँ ऋषि-पत्नी मुझे भी शिक्षा देती है। जनमेजय-भद्रे, यदि तुम्हारा भी परिचय पा जाऊँ, तो मैं विचार करूं कि आतिथ्य ग्रहण कर सकता हूं या नही । मणिमाला-मैं नागराज तक्षक की कन्या हूँ, और जरत्कारु ऋषि का पुत्र आस्तीक मेरा भाई है। जनमेजय-यह कैसा रहस्य ! क्या कहा जरत्कारु ? मणिमाला-हां, पायावर जरत्कारु ने मेरी बुआ नाग कुमारी मनसा से ब्याह किया था। जनमेजय-नागकुमारी, मैं क्षमा चाहता हूँ। इस समय मैं तुम्हारा आतिथ्य मही ग्रहण कर सकता, क्योंकि मुझे एक पुरोहित ढूंढ़ना है ! मैं पौरव जनमेजय हूँ। ३१२: प्रसाद वाङ्मय