पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३३५

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दामिनी -आप कहाँ रहते हैं ? माणवक-यह न पूछो। मैं संसार की भूली हुई वस्तु हूँ। न मैं किसी को जानना चाहता हूँ और न कोई मुझे पहचानने की चेष्टा करता है । तुमने कभी शरद के विस्तृत व्योम-मण्डल में रुई के पहल के समान एक छोटा-सा मेघ-खण्ड देखा है ? उसको देखते-देखते विलीन होते या कहीं चले जाते भी तुमने देखा होगा। विशाल कानन की एक वल्लरी की नन्ही-सी पत्ती के छोर पर विदा होने वाली श्यामा रजनी के शोकपूर्ण अश्रु-विन्दु के समान लटकते हुए, हिमकण को कभी देखा है ? और उसे लुप्त होते हुए भी देखा होगा। उसी मेघ-खण्ड या हिमकण की तरह मेरी भी विलक्षण स्थिति हैं। मैं कैसे कह सकता हूँ कि कहां और कब तक रह सकूँगा ? दामिनी-आश्चर्य ! तुम तो एक पहेली हो। माणवक-मै ही नहीं, यह समस्त विश्व भी एक पहेली है। हर्ष-द्वेष, प्रतिहिंसा, प्रतिशोध- दामिनी क्या कहा? माणवक-प्रतिशोध ! क्या ये सब पहेली नही ? दामिनी- हाँ हां, स्मरण आया--प्रतिशोध ! मुझे प्रतिशोध लेना है ! माणवक--किसमे ? क्या उसे लेकर तुम रख सकोगी? वह जहाँ रहेगा, जलाया करेगा, डंक मारा करेगा और तड़पाया करेगा। उसे तुम संभाल नहीं सकोगी। और जिसे तुम धारण नहीं कर सकती, उसे तुम लेकर क्या करोगी? छोड़ो, उसके पीछे न पड़ो। देवि, इसी में तुम्हारा कल्याण होगा । एक मै ही इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हूँ। चारों ओर मारा-मारा फिर रहा हूँ। दामिनी |--क्या तुमको भी किसी से प्रतिशोध लेना है ! वाह ! तब तो हम और तुम एक पथ के पाथिक है । माणवक-क्षमा करो, मै उस पथ में बहुत ठोकरें खा चुका हूँ। अब उस पर चलने का साहस नही, बल नहीं। तुम जाओ, तुम्हारा मार्ग और है, मेरा और ! दामिनी -तब मुझको ही वहां पहुंचा दो। माणवक-कहाँ ? दामिनी-(कुछ सोचकर) तक्षक के पास । माणवक-(चौंककर) वहाँ ! मैं नहीं जा सकता। और तुम दुर्बल रमणी हो लौट जाओ, दुस्साहस न करो। जनमेजय का नाग यज्ञ : ३१५