पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३३६

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? दामिनी-नहीं, मुझे वहाँ जाना आवश्यक है । मेरे शत्रु का एक वही शत्रु है । अच्छा, और कहाँ जाऊँ, तुम्ही बता दो। माणवक-मै-नही-(देखकर) लो वे स्वयं इधर आ रहे है ! में जाता हूँ। [माणवक का प्रस्थान, तक्षक का प्रवेश] तक्षक--सुन्दरी, इस विजन पथ में, इस बीहड़ स्थान में तुम क्यों आई हो! दामिनी -क्या आप ही तक्षक है ? तक्षक -क्यों, कुछ काम दामिनी हाँ, पर पहले अपना नाम बतलाइये । तक्षक-हाँ, मेरा ही नाम तक्षक है। दामिनी--मै प्रतिशोध लेना चाहती हूँ। तक्षक--किससे? दामिनो--उत्तंक से, जिमसे आप मणिकुण्डल लेना चाहते थे। तक्षक-तुम कौन हो? दामिनी-मै चाहे कोई होऊँ। जो उत्तंक को मेरे अधिकार मे कर देगा, उसे मै मणिकुण्डल दूंगी। तक्षक--ठहरो, तुम बड़ी शीघ्रता से बोल रही हो। दामिनी |--क्या विश्वास नही होता ? तक्षक होता है, पर वह काम इसी क्षण तो नहीं हो जायगा। दामिनी--चेष्टा करो। नही तो तुम इस योग्य ही न रह जाओगे कि उसे पकड़ सको। तक्षक-(हँसकर) क्यों ? दामिनी--वह तुमसे बदला लेने के लिए जनमेजय के यहां गया है। बहुत शीघ्र तुम उसके कुचक्र मे पड़ोगे। तक्षक-इमका प्रमाण ? स्मरण रखना कि तक्षक मे खेलना सहज नहीं है। (गम्भीर हो जाता है) दामिनी--मै अच्छी तरह जानती हूँ; तभी कहती हूँ। तक्षक-अच्छा, तो मेरे यहाँ चलो। मै इसका शीघ्र प्रबन्ध करूंगा। तुम डरती तो नही हो। दामिनी-नही । चलो, मै चलती हूँ। (दोनों जाते हैं) दृश्या न्त र ३१६ : प्रसाद वाङ्मय