पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३३८

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लिये भेजिये, और आप स्वयं इन नागों का दमन करने के लिये तक्षशिला की ओर प्रस्थान कीजिये। अश्वमेध के व्रती होइये। सम्राट् ! जब तक मेरी क्रोधाग्नि में दुवृत्त नाग जलकर भस्म न होंगे, तब तक मुझे शान्ति न मिलेगी। बल-मद से मत्त चाहे कोई शक्ति हो, ब्राह्मण की अवज्ञा करके उसका फल अवश्य भोगेगी । बतलाइये, आप नियति द्वारा आरोपित कलंक का प्रतिकार, अपने सुकर्मों से, नियामक बन कर करना चाहते हैं या नहीं? और मेरी प्रतिज्ञा भी पूरी करना चाहते हैं या नहीं ? अन्यथा मैं दूसरा यजमान ढूंहूँ । जनमेजय - आर्य उत्तंक ! पौरव जन्मेजय प्रतिज्ञा करता है कि अश्वमेध पीछे होगा, पहले नाग-यज्ञ होगा। उत्तंक-सन्तुष्ट हुआ। सम्राट् ! मेरा आशीर्वाद है कि जीवन की समस्त बाधाओं को हटा कर आपका शान्तिमय राज्य बढे। अब शीघ्रता कीजिये। मैं जाता हूँ। जनमेजय -मैं प्रस्तुत हूँ। आर्य ! [उत्तंक का प्रथान, वपुष्टमा का प्रवेश] वपुष्टमा-जब देखो, तब वही चिन्ता का स्वॉग ! आर्यपुत्र क्यों चिन्ता-मग्न हैं ? किस समस्या में पड़े हैं ? जनमेजय-देवि ! यह साम्राज्य तो एक बोझ हो गया है । वपुष्टमा -तब फिर क्यों नहीं किसी दूसरे के सिर मढते ? जनमेजय-यदि ऐसा कर सकता तो फिर बात क्या थी ! वपुष्टमा तब यही कीजिये । जो सामने आवे, उसे करते चलिये । जनमेजय-करूंगा। अब एक बार कर्म-समुद्र मे कूद पडूंगा, चाहे जो कुछ हो । आलस्य अब मुझे अकर्मण्य नही बना सकता। प्रिये, बहुत प्यास लगी है। वपुष्टमा-कोई है ? प्रमदा ! प्रमदा-(प्रवेश करके) महादेवी की जय हो । क्या आज्ञा है ? वपुष्टमा-रत्नावली से कहो द्राक्षासव ले आवे । [प्रमदा का प्रस्थान वपुष्टमा-आर्यपुत्र ! आज रत्नावली का गान सुनिये । जनमेजय-मेरी भी इच्छा थी कि आज आनन्द-विनोद करूं। फिर कल से तो नाग-दमन और अश्वमेध होगा ही। वपुष्टमा-क्या, माग-दमन और अश्वमेध ? जब देखो, तब युद्ध-विग्रह । एक षड़ी विश्राम नहीं। पुरुष भी कैसे कठोर होते हैं ! जनमेजय -यही उनकी भाग्यलिपि है ? अदृष्ट है। क्या वे विलास, प्रमोद ३१८: प्रसाद वाङ्मय