पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३४१

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मणिमाला-माई, तुम देख रहे हो कि नाग-कुल पर कैसी विपत्ति है ? फिर भी तुम इस प्रकार के अभिनय कर रहे हो ! अश्वसेन-मणि, मैं लज्जित हूँ। मणिमाला -अच्छा भाई ! पिताजी को अब इस बात की सूचना नहीं होगी। किन्तु ! हाय ! मेरा हृदय कांप उठता है । भाई, पुरुषोचित काम करो। अत्याचार से पीड़ितों की रक्षा करने में पौरुष का उपयोग करो। तुम वीरपुत्र हो । अश्वसेन-अब और अधिक लज्जित न करो। मैं सवसे क्षमा प्रार्थी हूँ। लो, मैं अभी रण-प्रांगण को चला ! (सवेग प्रस्थान) दामिनी-अब मैं यहाँ एक क्षण भी नहीं रहना चाहती। मणि, मैं जाऊंगी। मणिमाला -अच्छा, (कुछ ठहर कर) दो-चार दिन में चली जाना। अभी तो मैं आयी हूँ। (हाथ पकड़कर ले जाती है) दृश्या न्त र पंचम दृश्य [कानन के एक कुटीर में तक्षक, वेद, काश्यप, सरमा और कुछ नाग तथा ब्राह्मण बैठे हैं] तक्षक-मैं अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ हूँ। कौरवों का नाश होने पर परिषद की सत्ता आप लोगों के हाथ रहेगी, और हम लोग क्षत्रिय होकर आप लोगों के स्वाध्याय तथा शान्ति की रक्षा करेंगे। ब्राह्मणों पर हमारा कुछ भी नियन्त्रण न रहेगा। काश्यप-हाँ जी, यह तो ठीक ही है। वेद-किन्तु शक्ति पा जाने पर तुम भी अत्याचारी न हो जाओगे, इसका क्या निश्चय है ? ब्राह्मण-सुनो जी, हम लोग आरण्यक, वानप्रस्थ, शान्त, तपोधन ब्राह्मण है। अत्याचार से सुरक्षित रहने के लिए एक शुद्ध राजसत्ता चाहते हैं । हमारा किसी से द्वेष नहीं है। सरमा--अपने को अलग करके बचे हुओं पर यह दया दिखायी जाती है, किन्तु आप अपने को सर्वोच्च समझते हैं ! काश्यप-क्यों सरमा, क्या इसमें भी कोई सन्देह है ? सरमा-नहीं, आर्य काश्यप ! इसमें क सन्देह है ! आप और भी ऐसे-ऐसे उत्तम काम करें, विप्लव करें, किन्तु आपके सर्वोच्च होने में कौन सन्देह कर सकता है ! जनमेजय का नाग यज्ञ : ३२१