पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३४४

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लोट न आया निर्दय ऐसा, रूठ रहा कुछ बातों पर। था परिहास एक-दो क्षण का, वह रोने का विषय हुआ ।। अब पुकारता स्वयं खड़ा उस पार; बीच में खाई है। आऊ क्या मैं भला बता दो, क्या आने का समय हुआ। जीवन भर रोऊँ, क्या चिन्ता ! वैसी हँसी न फिर करना। कहकर आने लगा इधर फिर क्यों अब ऐसा सदय हुआ। नाथ ! अभिमान से मैं अलग हूँ, किन्तु स्नेह से अभिन्न हूं। रमणी का अनुराग कोमल होने पर भी बड़ा दृढ़ होता है। वह सहज में छिन्न नहीं होता। जब वह एक बार किसी पर मरती है, तब उसी के पीछे मिटती भी है। प्राणेश्वर ! इस निर्जन वन में तुम्हारी अप्रत्यक्ष मूर्ति के चरणों पर अभिमानिनी सरमा लोट रही है । देवता ! तुम संकट मे हो, यह सुनकर भला मैं कैसे रह सकती हूँ ! मेरा अश्रु-जल समुद्र बनकर तुम्हारे और शत्रु के बीच गर्जन करेगा, मेरी शुभ कामना तुम्हारा वर्म बनकर तुम्हें सुरक्षित रक्खेगी ! तुम्हारे लिये अपमानिता सरमा राजकुल में दासी बनेगी। (जाती है) दृश्या न्त र षष्ठ दृश्य [कानन में अग्निशाला में शीला और सोमश्रवा] शीला -क्या गुरुजनों के सामने ही ऐसा प्रश्न कीजियेगा ? मोमश्रवा-हाँ, और नही तो क्या ! पाणिगृहीता भार्या पितृकुल में वास करेगी तो मेरा अग्निहोत्र कैसे चलेगा ? शीला-नागराज की कन्या मणिमाला अब थोड़े ही दिनों तक और यहाँ रहेगी, और भाई आस्तीक का भी समावर्तन संस्कार होने वाला है। अभी वह सहमन नही होता है, किन्तु कुछ ही दिनों में स्वीकार कर लेगा। तब तक के लिए मैं क्षमा चाहती हूँ। सोमश्रवा तो फिर मैं भी यही रहूँ ? शीला-क्यों नहीं ! फिर पुरोहित क्यों बने थे ? सोमश्रवा--प्रमादपूर्ण युद्धविग्रह का सम्पर्क मुझे तो नही अच्छा लगता। राजा ने मुझे भी तक्षशिला में बुलाया है। किंतु देवि, मैं तो नहीं जाता। वह वीभत्स हत्याकाण्ड मुझमे नहीं देखा जायगा। शीला-तो फिर यहाँ श्वसुर-कुल में रहोगे? ३२४: प्रसाद वाङ्मय