पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३४५

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सोमश्रवा-नहीं, अपने पिता के आश्रम में रहूंगा। यहां से तो वह समीप ही है। कभी-कभी आकर तुम्हें भी देख जाया करूंगा। शीला-किन्तु आर्यपुत्र ! हम आरण्यकों को नगर में रहना कैसे अच्छा लगेगा? सोमश्रवा-देवि, मुझे तो राजा की पुरोहिती नहीं रुचती। इन्ही थोड़े दिनों में इन्द्रप्रस्थ से जी घबरा उठा है । मुझे तो राजा के साथ ही तक्षशिला जाना पडता, किन्तु इस प्रस्तुत युद्ध में कल्याण के लिए कई आथर्वण प्रयोग करने है, इमी से मैं यहाँ आरण्यक-मण्डल में चला आया हूँ। राजा का अग्निहोत्र भी मेरे माथ है। अब कुछ दिनों तक यही रहूंगा। तुम भी वही चलो। सब लोग मिलते-जुलते रहेगे । शीला -जब यहीं समीप में रहना है, तब तो ठीक ही है। किसी से विच्छेद भी न होगा। [मणिमाला का प्रवेश मणिमाला-शीला ! बहन, अरे तू इतना लजाती क्यों है। यह लो, यह तो बोलती भी नहीं ! तेरा वह परिहास-रसिक स्वभाव, वह विनोदपूर्ण व्यवहार, क्या सब कुछ भूल गया ? [च्यवन का प्रवेश, सब प्रणाम करते हैं] च्यवन-आयुष्मन् सोमश्रवा ! तुमने राजपुरोहित का पद स्वीकार कर लिया, यह बहुत अच्छा किया। सोमश्रवा-आर्य ! यह मब आप लोगों की कृपा है । च्यवन-वत्स, राज-सम्पर्क के अवगुण हम ब्राह्मणो को, आरण्यकों को, न सीखने चाहिये । दया, उदारता, शील आर्जव और सत्य का सदैव अनुसरण करना चाहिये। सोमश्रवा-आर्य, ऐसा ही होगा। च्यवन-वत्स ! ऐसा काम करना जिसमे दुरात्मा कास्यप ने ब्राह्मणों की जो विडम्बना की है, वह सब धुल जाय और सब पर ब्राह्मणों की सच्ची महत्ता प्रकट हो जाय !. अध्यात्म-गुरु जब तक अपना सच्चा स्वरूप नही दिखलावेंगे, तब तक दूसरे भला कैसे धर्माचरण करेंगे ! त्याग का महत्त्व, जो हम ब्राह्मणों का गौरव है, सदैव स्मरण रहे। धर्म कभी धन के लिये न आचरित हो, वह श्रेय के लिये हो, प्रकृति के कल्याण के लिये हो, और धर्म के लिये हो। यही धर्म हम तपोधनों का परम धन है। उसकी पवित्रता शरत्कालीन जलस्रोत के सदृश, उमकी उज्ज्वलता शारदीय गगन के नक्षत्र-लोक से भी कुछ बढ़ कर और शीतल हो। सोमश्रवा-आर्य ! ऐसा ही होगा। मैंने राजा से प्रतिज्ञा की है कि यदि कोई जनमेजय का नाग यज्ञ : ३२५