पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३४७

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होन-पौरुष नही हुए हैं। जिस दिन वे मरने से डरने लगेंगे, उसी दिन उनका नाश होगा। जो जाति मरना जानती रहेगी, उसी को पृथ्वी पर जीने का अधिकार रहेगा। चण्ड भार्गव-मैं अपना कर्तव्य कर चुका । इनकी आहुति दो। [सैनिक लोग नागों को एक ओर ढकेल कर फूस से घेरकर आग लगा देते हैं, आर्य सैनिक 'स्वाहा' चिल्लाते हैं, पहाड़ी में से एक गुफा का मुंह खुल जाता है, मनसा और तक्षक दिखायी देते हैं] चण्ड भार्गव-अरे यही तक्षक है। पकड़ो, पकड़ो ! [चण्ड भार्गव आगे बढ़ता है, बाल खोले और हाथ में नंगी तलवार लिए हुए मनसा आकर बीच में खड़ी हो जाती है, तक्षक दूसरी ओर निकल जाता है, सब आर्यसैनिक स्तब्ध रह जाते हैं] दृश्या न्त र अष्टम दृश्य [पथ में माणवक और दामिनी] माणवका -अब तुम निरापद स्थान मे पहुंच गयी हो, मैं जाता हूँ। दामिनी -न न न ! कही फिर अश्वसेन न आ जाय । मुझे थोड़ी दूर पहुंचा दो। तुम्हारी बात न मानकर मैंने बड़ा दुःख उठाया। परन्तु मेरा अपराध भूलकर योड़ा-सा उपकार और कर दो। माणवक -मैं जनसंसर्ग से दूर रहना चाहता हूं। मुझे क्षमा करो। दामिनी-मैं पथभ्रष्ट हो जाऊँगी। माणवक-सो तो हो चुकी । अब भाग्य में होगा, तो म-फिर कर फिर अपने स्थान पर पहुंच ही जाओगी। [वेद और त्रिविक्रम का प्रवेश] वेद-वत्स त्रिविक्रम ! आज और कितना चलना होगा ? त्रिविक्रम-गुरुदेव, किधर चलना है ? जनमेजय के यज्ञ की ओर अथवा गुरु पत्नी को ढूंढने ? वेद-ढूंढ़ तो चुके त्रिविक्रम ! वह उल्का-सी रमणी अनन्त पथ मे भ्रमण करती होगी। उसके पीछे किस छाया-पथ से जाऊँगा ! दामिनी ! अब भी मैं तुझे क्षमा करने के लिए प्रस्तुत हूं क्योंकि मैं जानता हूँ कि बड़े-बड़े विद्वान् भी प्रवृत्तियों के दास होते हैं, फिर तू तो एक साधारण स्त्री ठहरी। जनमेजय का नाग यज्ञ : ३२७