पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३४८

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त्रिविक्रम-पर अब वह मिलती कहां हैं ? वेद-जाने उसका भाग्य ! चलो, यज्ञशाला की ओर चलें। परन्तु त्रिविक्रम ! मुझे भय लग रहा है कि कही इस यज्ञ कोई भयानक काण्ड संघटित न हो ! त्रिविक्रम -तब तो कुटीर की ओर लौटना ही ठीक होगा। [दामिनी आकर पैरों पर गिरती है] वेद-कौन दामिनी ! दासिनी-हाँ आर्यपुत्र ! अपराधिनी को क्षमा कीजिये । वेद-(निश्वास लेकर) क्षमा ! दामिनी हृदय से पूछो, वह क्षमा कर सकेगा? दामिनी-पह मेरा भ्रम था। परन्तु हृदय से नही, आप अपनी स्वाभाविक कृपा से पूछ देखिये । वही मुझे क्षमा कर देगी । मेरा और कौन है ! माणवक-आर्य ! क्षमा से बढ़कर और किसी बात में पाप को पुण्य बनाने की शक्ति नहीं है। मैं भली-भांति जानता हूँ, मानसिक दुर्बलताओं के रहते हुए भी यह स्त्री आचारतः पवित्र और शुद्ध है। वेद-दामिनी, उजड़ा हुआ गुरुकुल देखकर क्या करोगी ! चलो, पज्ञशाला की ओर ही चले । (माणवक से) भाई तुम कौन हो ? माणवक-यादवी सरमा का पुत्र । त्रिविक्रम-सरमा तो आजकल जनमेजय के राजमन्दिर मे ही है। वह छिपी हुई है तो क्या हुआ, मैं उसे पहचान गया हूँ। माणवक--तो फिर मै भी आप लोगों के साथ ही चलूंगा, एक बार मां को देखूगा। [सब जाते हैं] यव नि का तृतीय अङ्क प्रथम दृश्य [वेदव्यास और जनमेजय] जनमेजय-आर्य ! मुझे बड़ा आश्चर्य है ! व्यास-वत्स, वह किस बात का ? ३२८: प्रसाद वाङ्मय