पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३५०

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ध्यास-(ध्यानस्थ होकर) जनमेजय, तुम्हारा भविष्य भी बहुत रहस्यपूर्ण है। तुम्हारा जीवन श्रीकृष्ण के किये हुए एक आरम्भ की इति करने के लिये है। (हंसकर ऊपर देखते हुए) गोपाल, इसे तुम इतने दिनों के लिए स्थगित कर गये थे। जनमेजय-भगवन् पहेली न बनाइये । व्यास–नियति, केवल नियति ! जनमेजय, और कुछ नही । ब्राह्मणों की उत्तेजना से तुमने अश्वमेध करने का जो दृढ़ संकल्प क्यिा है, उसमें कुछ विघ्न होगा, और धर्म के नाम पर आज तक जो बहुत सी हिंसाएं होती आई है, वे बहुत दिनों तक के लिए रुक जाने को है। जनमेजय-यदि कोई ऐसी बात हो, तो प्रभु, मैं यज्ञ न करूं ! व्यास -वत्स, तुमको यज्ञ करना ही पड़ेगा। तुम्हारे सिर पर ब्रह्महत्या और इतनी नाग-हत्या का अपराध है। इसी यज्ञ की आशा से ब्राह्मण समाज ने अभी तक तुम्हें पतित नहीं ठहराया है। धर्म का शासन तुम्हें मानना ही पड़ेगा। तुम्हारी आत्मा इतनी स्वच्छन्द नही कि तुम इस प्रचलित परम्परा का उल्लंघन कर सको। अभी तुम्हारे स्वच्छन्द होने में विलम्ब है। तुम्हें तो यह क्रियापूर्ण यज्ञ करना ही पड़ेगा, फल चाहे जो हो। यज्ञेश्वर भगवान् की इच्छा ! जाओ जनमेजय तुम्हारा कल्याण हो। [जनमेजय प्रणाम करके जाता है, वेदव्यास ध्यानस्थ होते हैं, शीला, सोमश्रवा आस्तीक तथा मणिमाला का प्रवेश] शीला-आर्यपुत्र, अभी तो भगवान् ध्यानस्थ हैं । सोमश्रवा -तब तक आओ, हम लोग इस मन्त्रमुग्ध वन की शान्त शोभा देखें। क्यों भाई आस्तीक, रंमणीयता के साथ ऐसी शान्ति कही और भी तुम्हारे देखने में आयी है ? आस्तीक-आर्यावर्त के समस्त प्रान्तों मे इसमें कुछ विशेषता है। भावना की प्राप्ति और कल्पना के प्रत्यक्ष की यह संगम-स्थली हृदय में कुछ अकथनीय आनन्द, कुछ विलक्षण उल्लास, उत्पन्न कर देती है ! द्वेष यहां तक पहुंचते-पहुंचते थक कर मार्ग में ही कही सो गया है। करुणा आतिथ्य के लिए वन-लक्ष्मी की भांति आगतों का स्वागत कर रही है। इस कानन के पत्तों पर सरलतापूर्ण जीवन का सच्चा चित्र चमत्कृत हो जाता है। मणिमाला--भाई, मुझे तो इस दृश्य-जगत् में क्षण-भर स्थिर होने के लिए अपनी समस्त वृत्तियों के साथ युद्ध करना पड़ रहा है। वह करुणा की कल्पना, जो मुझे उदासीन बनाये रखती थी, यहाँ आने पर शान्ति मे परिवर्तित हो गयी है। मानव-जीवन को जो कुछ प्राप्त हो सकता है, वह सब जैसे मिल गया हो। ३३०:प्रसाद वाङ्मय