पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३५१

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आस्तीक-सुनो ! (कान लगाता है) सोमश्रवा-क्या ? आस्तीक-यहाँ कोई उपदेश हो रहा है। मन को थोड़ा शान्त करो, सब स्पष्ट सुनाई देने लगेगा। [सब चुप हो जाते हैं] आस्तीक-(आप-ही-आप) बुला लो, बुला लो, उस वसन्त को, उम जंगली वसन्त को, जो महलों में मन को उदाम कर देता है, जो मन में फूलों के महल बना देता है, जो सूखे हृदय की धूल में मकरन्द सीचता है ! उसे अपने हृदय में बुला लो! जो पतझड़ करके नयी कोंपल लाता है, जो हमारे कई जन्मों की मादकता में उत्तेजित होकर इस भ्रान्त जगत में वास्तविक बात का स्मरण करा देता है, जो कोकिल के सदृश सकरुण आवाहन करता है, जिसमें विश्व-भर के सम्मिलन का उल्लास स्वतः उत्पन्न होता है, एक आकर्षण सबको कलेजे से लगाना चाहता है, उस वसन्त को, उस गयी हुई निधि को, लोटा लो। कांटों में फूल खिले, विकास हो, प्रकाश हो, सौरभ खेल खेले ! विश्व मात्र एक कुसुम-स्तवक सदृश किसी निष्काम के करों मे पित हो । आनन्द का रसीला राग गूंज उठे । विश्व-भर का क्रन्दन कोकिल की काकली में परिणत हो जाय । व्यास -(आँख खोलते हुए) नमो रुचाय ब्राह्मणे । सोमश्रवा-आर्य के श्रीचरणों मे उपश्रवा का पुत्र सोमश्रवा प्रणाम करता है। आस्तीक-यायावर वंशी आस्तीक आर्य को प्रणाम करता है। व्यास-कल्याण हो ! सद्बुद्धि का उदय हो । शीला-आर्य ! उपश्रवा की पुत्रवधू भगवान के चरणों में प्रणाम करती है। मणिमाला-महात्मा के चरणो मे नागराज-बाला मणिमाला प्रणाम करती है। व्यास- कल्याण हो ! विश्व-भर के कल्याण मे तुम सब दत्तचित्त हो ! वत्स सोमश्रवा, तुम राजपुरोहित हुए, यह अच्छा ही हुआ। पर देखो, धर्म का शासन बिगड़ने न पावे। सोमश्रवा-आर्य, आशीर्वाद दीजिये कि मैं अपने कर्त्तव्य में दृढ़तापूर्वक लगा व्यास-वत्स आस्तीक, तुम्हारा प्रादुर्भाव किसी विशेष कार्य के लिए हुआ है। आशा है, तुम वह कार्य सम्पन्न करोगे। आस्तीक-आर्य, आशीर्वाद दीजिये कि मैं अपने कर्तव्य के पालन में सफल होऊ। जनमेजय का नाग पज्ञ: ३३१