पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३५४

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उषा में सीमा पर के खेत लहलहाते कर मलयज का स्पर्श । बिखरते हिमकण विकल अचेत, उसे हम रोना कहें कि हर्ष । कृषक जब हंसने लगते हैं, तभी हम रोने लगते हैं। इसी 'हम' को तुम ले लो नाथ, न लूटो मेरी कोई वस्तु । उमे दे दो करुणा के हाथ, मभी हो गया तुम्हारा, अस्तु । लोग जब रोने लगते हैं, तभी हम हमने लगते हैं। वपुष्टमा--सचमुच कलिका, जब एक रोता है, तभी तो दूसरे को हंसी आती है। यह संसार ऐसा ही है । कलिका-स्वामिनी ! केवल दम्भ, और कुछ नहीं ! साधारण मनुष्यता से कुछ ऊँचे उठा लेनेवाला दम्भ, हृदय को बड़े वेग से पटक देता है, जिससे वह चूर हो जाता है ! महादेवी, चूर होकर, मार्ग की धूल में मिलकर, समता का अनुभव करते हुए चरण-चिह्नों की गोद में लौटना भी एक प्रकार का मुख है, जो सबकी समझ में नहीं आता ! वपुष्टमा--हाँ । इच्छा होने पर भी मैं ऐसा नहीं कर सकती ! [सोमश्रवा और उत्तंक का प्रवेश] वपुष्टमा-पौरव कुलवधू का आर्य के चरणों में प्रणाम है । उत्तंक-कल्याण हो, सौभाग्यवती हो, वीरप्रसूत हो। श्रुतसेन, उग्रसेन और भीमसेन, ये तीनों पाण्डव-कुल के महावीर विजयोपहार के साथ लौट आये। अश्व भी गान्धार तथा उत्तर-कुरु विजय करने के लिए प्रेरित किया गया है। स्वयं सम्राट भी इस बार अश्व की रक्षा के लिए आगे बढ़ेगे। वपुष्टमा-आर्य के रहते हुए प्रबन्ध में कोई त्रुटि न होगी। कृती देवरों की सम्वर्धना करने के लिए मै यज्ञशाला में चलती हूँ। किन्तु प्रभो, यह यज्ञ कैसा होगा? उत्तंक-जैसा सदैव से होता आया है। मम्राज्ञी, ब्रह्महत्या का प्रायश्चित्त करने और अपयश से बचने के लिए ही तो यह समस्त आयोजन है। बहुत अनुनय-विनय पर कुछ ब्राह्मण यज्ञ कराने के लिये उद्यत हुए हैं, सो भी जब कुलपति शौनक ने आचार्य होना स्वीकृत किया है, तव । ३३४ : प्रसाद वाङ्मय