पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३५५

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वपुष्टमा-यह सब करने पर भी क्या होगा? उत्तंक-राष्ट्र तथा समाज के शासन को दृढ़ करना ही इसका एकमात्र उद्देश्य है। वपुष्टमा -तब आर्य इसे धर्म क्यों कहते हैं, ? उत्तंक-सम्राज्ञी, क्या धर्म कोई इतर वस्तु है ? वह तो व्यापक है। भला बिना उसके कही राष्ट्रनीति और समाजनीति चल सकती है ? वपुष्टमा-मै तो घबरा रही हूँ। उत्तंक-कल्याणी, सावधान रहें। आप सम्राज्ञी है, फिर ऐसी दुर्बलता क्यों ? नियति का कीड़ा-कन्दुक नीचा-ऊँचा होता हुआ अपने स्थान पर पहुंच ही जाएगा। चिन्ता क्या है ? केवन कर्म करते रहना चाहिये । वपुष्टमा–आर्य, आशीर्वाद दीजिये कि पति देवता के कार्य मे मै सहकारिणी रहूँ, और मरण मे भी पश्चात्पद न होऊँ । उत्तंक–पौरव कुलवधू के योग्य साहस हो, कल्याण हो ! (जाता है) दृश्या न्त र . तृतीय दृश्य [पहाड़ की तराई में नाग-सैनिक खड़े हैं, मनसा और उसकी दो सखियाँ गाती हैं] क्या सुना नही कुछ, अभी पड़े सोते हो क्यो निज स्वतन्त्रता की लज्जा खोते हो। प्रनिहिंसा का विष तुम्हे नही चढता क्या इतने शीतल हो, वेग नहीं बढ़ता क्या जब दर्द भरा अरि चढ़ा चला आता है तब भी तुममे आवेश नही आता है जातीय मान के शव पर क्यो रोते हो क्यो निज स्वतन्त्रता की लज्जा खोते हो धिक्कार और अवहेला की बलिहारी सचमुच तुम सब हो पुरुष या कि हो नारी चल जाय दासता की न कही यह छलना देखते तुम्हारे लाञ्छित हो कुल-ललना जातीय क्षेत्र अयश बीज बोते हो क्यो निज स्वतन्त्रता की लज्जा खोते हो जनमेजय का नाग यज्ञ : ३३५