पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- सकते, तब उनसे मित्रता रखने में क्या बुराई है ? यह तो कल्पित मानापमान के रूप में युद्ध-लिप्सा ही दिखाई देती है। तक्षक-(स्वगत) क्यों न हो, आर्य-रक्त का कुछ तो प्रभाव होना ही चाहिये। मनसा-सुना था, मेरी सन्तान से नाग-जाति का कुछ उपकार होगा। इसीलिए मैंने तुझे उत्पन्न किया था। यदि तू तलवार लेकर इस जातीय युद्ध में नहीं सम्मिलित होता, तो आज से तू मेरा त्याज्य पुत्र है । मणिमाला - बुआ, ऐसा न कहो ! भाई आस्तीक ! मनसा-लड़की, चुप रह ! मुझे तू अभी पहचानती नही । आस्तीक-मैं किस प्रकार इस जाति की सहायता करूंगा, यह मैं जानता हूँ। तो फिर मां मैं प्रणाम करता हूँ। तलवार लेकर तो नही, पर यदि हो सका तो मैं दूसरे प्रकार से यह विवाद मिटाऊँगा। इम क्रोध की बाढ़ मे मै बाँध बनूंगा, चाहे फिर मैं ही क्यों न तोड़कर बहा दिया जाऊँ । (जाता है) मणिमाला-फिर मुझे क्या आज्ञा है ? तशत जा बेटी, तू घर जा। [मणिमाला जाती है] मनसा-सावधान ! वह अश्व आ रहा है। [अश्व के साथ आर्य-सैनिकों का गाते हुए प्रवेश] पद-दलित किया है जिसने भूमण्डल को। निज हेषा से चौंकाता आखण्डल को। वह विजयी याज्ञिक अश्व चला है आगे। हम सब हैं रक्षक, देख शत्रगण भागे । यह अरुण पताका नभ तक है फहराती। जो विजय-गीत मिल मलय पवन से गाती॥ जय आर्यभूमि की, आर्य-जाति की जय हो। अरिगण को भय हो, विजयी जनमेजय हो। मनसा छीन लो, इस अश्व को छीन लो ! [सब नाग चिल्लाकर दौड़ते हैं, युद्ध होता है, नाग अश्व पर अधिकार कर लेते हैं, दूसरी ओर से चण्ड भार्गव और जनमेजय सैनिकों के साथ आकर नागों को भगाते और अश्व को छुड़ा ले जाते हैं, मणिमाला का प्रवेश] मणिमाला-क्या ही वीर-दर्प से पूर्ण मुखश्री है ! प्रणय-वृक्ष, तू कैसे भयानक २२ जनमेजय का नाग यज्ञ : ३३७