पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३५८

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पानी से टकरानेवाले कगार पर लगा है ! पिता! नहीं मानोगे । ओह ! क्षण भर में कितना भीषण रक्तपात हो गया। [घायलों को देखती है, मनसा का पुनः प्रवेश] मनसा-कौन ? मणिमाला ! मणिमाला-हाँ बुआ, देखो तुम्हारी उत्तेजना ने क्या परिणाम दिखलाया । आहा ! बेचारे का हाथ ही कट गया है ! मनसा-(गम्भीर होकर) बेटी, सचमुच यह बड़ा भयानक दृश्य है। इसे देखकर तो मेरा भी हृदय कांप उठा है । मणिमाला-नही बुआ, तुम न काँपो। तुम त्रिशूल लिये हुए बज कठोर चरणों से इन शवों पर रण-चण्डी का ताण्डव नृत्य करो। संसार भर की रमणीयता और कोमलता वीभत्स ऋन्दन करे, और तुम्हारे रमणीसुलभ मातृभाव की धज्जियां उड़ जायें ! विश्व भर मे रमणियों के नाम का आतंक छा जाय ! सेवा, वात्सल्य, स्नेह तथा इसी प्रकार की समस्न दुर्बलताओं के कही चिह्न तक न रह जाएँ, क्योंकि सुनती हूँ, इन सब विडम्बनामें से केवल स्त्रियाँ ही कलंकित है । है बुआ, एक बार विकट हुंकार कर दो! मनसा-बस बेटी, बस अधिक नहीं। मेरी भूल थी, पर वह आज समझ में आ गयी। यदि स्त्रियाँ अपने इंगित की आहुति न दें तो विश्व मे क्रूरता की अग्नि प्रज्वलित ही नहीं हो सकती। बर्बर रक्त को खोला देना इन्ही दुर्बल रमणियों की उत्तेजनापूर्ण स्वीकृति का कार्य है। उनकी कातर दृष्टि मे जो बल, जो कर्तृत्व- शक्ति है वह मानव-शक्ति का मञ्चालन करने वाली है। जब अनजान में उसका दुरुपयोग होता है, तब तत्काल इस लोक में दूसरा ही दृश्य उपस्थित हो जाता है । वेटी, क्षमा कर, तू देवी है। मणिमाला-तो चलो बुआ, इन घायलों की शुश्रूषा करें। मनसा-अच्छा बेटी ! (दोनों घायलों को उठाती हैं) दृश्या न्त र चतुर्थ दृश्य [महल का बाहरी भाग, कलिका-दासी के रूप में सरमा आती है] सरमा-मैं पति-सुख से वञ्चिता हूँ। पुत्र भी अपमानित होकर रूठ कर चला गया है। जाति के लोगों का निरादर और कुटुम्बियों का तिरस्कार सहकर पेट पालने के लिए अधम दासता कर रही हूँ, तब भी कौन कह रहा कि 'मैं तुम्हारे साथ हूँ ?' जब किसी की महानुभूति नही, जब किसी से महायता की आशा नही, ३३८: प्रसाद वाङ्मय