पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३५९

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तब भी विश्वास ! राजकुल में क्या करने के लिए आयी हूँ। होगा, मेरा कोई काम होगा ! मैं उस अदृष्ट शक्ति का यन्त्र हूँ वह जो मेरे साथ है, मुझसे कोई काम कराना चाहता है। [प्रमदा का प्रवेश] प्रमदा-कलिका ! तू यहां क्या कर रही है। क्या अभी तक शाला में नही गयी? महारानी तेरी प्रतीक्षा कर रही होंगी। कलिका-(सरमा)-प्रमदा ! आज इस समय तू ही काम चला दे । मैं रात को रहूँगी । आज अश्व-पूजन होगा। रात भर जागना होगा । नृत्य-गीत देखू-सुनूंगी। मेरी प्यारी बहन, आज मेरा जी बेचन है। प्रमदा-अरी वाह ! मैं क्यों तेरा काम करने लगी ! कलिका-मैं तेरे पैरो पड़ती हूँ। बहन ! इस समय तो मैं किसी काम की नही हूँ। प्रमदा-क्या तूने कुछ माध्वी पी ली है ? कल तो अच्छो भली थी। कलिका-नही बहन, मैं गौड़ी या माध्वी कुछ नही पीती। अच्छा तू न करेगी, तो में ही चलती हूँ। (रोमी सूरत बनाती है) प्रमदा-नही, मैं तो हँसी करती थी। जा, जब तेरा जी चाहे, तब आइयो, मैं जाती हूँ। [प्रमदा जाती है, सरमा किसी को आते देखकर छिप जाती है, इधर-उधर देखता हुआ काश्यप आता है] काश्यप-सन्ध्या हो चली है। आकाश ने धूसर अन्धकार का कम्बल तान दिया है। यह गोधूलि आँखों में धूलि झोंककर काम करने का अभय दान दे रही है। आंगिरस काश्यप की प्रतिहिंसा का फल, उमे अपमानिन करके, पुरोहिती छीनकर, शौनक को आचार्य बनाने की मूर्खता का दण्ड आज मिलेगा। ब्राह्मण ! आज वह शक्ति दिखला दे कि तुझमें 'शापादपि शरादपि' दोनो प्रकार से दण्ड देने का अधिकार है ! ओह, इतनी पुष्कल दक्षिणा ! ऐसे महत्त्व का पद ! मुझसे सब छीन लिया गया ! रोयेगा, जनमेजय, तू आठ-आठ आँसू रोयेगा। तेरे हृदय को क्षत-विक्षत करके, तेरी आत्मा को ठोकर लगाकर, मैं दिखला दूंगा कि ब्राह्मण को अपमानित करने का क्या फल है !--अभी नही आया ? [तक्षक का छिपते हुए प्रवेश] तक्षक-कोन है ? काश्यप-मैं, आंगिरस । तुम कौन ? तक्षक-नाग। जनमेजय का नाग यज्ञ : ३३९