पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३६०

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. काश्यप-प्रस्तुत होकर आये हो ? तक्षक-तुम अपनी कहो। काश्यप-मैंने सब ठीक कर दिया है। अश्व-पूजन मे जाने वाले सब ब्राह्मण हमारे है । वहाँ थोडी-सी स्त्रियां ही रहेगी। उनसे तो तुम नही डरते न ? तक्षक-मेरे केवल पचीस ही साथी आ सके है। काश्यप-इतने से काम हो जायगा। यज्ञ का अश्व तुम ले भागना, और यदि हो सके, तो महिषी को भी। तक्षक-(चौंककर) क्यो उसका क्या काम है ? काश्यप-बताऊँगा ! इस समय जाओ, सावधानी से काम करना। थोडे-से रक्षक रहेगे वे भी सोम-पान करके झूमते हुए मिलेगे। तुम्हे कोई डर नही है। जाओ, अब समय हो गया। यदि चूकोगे तो फिर ठिकाना न लगेगा। घात मे लग जाओ। मरमा भी यही है, वह तुम्हारा काम करेगी। तक्षक-अच्छा, जाता हूँ। किन्तु काश्यप, अबकी अन्तिम दांव है। यदि अबकी सफलता न हुई तो फिर तुम्हारी कोई बात न मानूंगा। (तक्षक जाता है) काश्यप-मरो, कटो, मुझे क्या ! घात चल गयी, तो हँसूंगा, नही तो कोई चिन्ता नही। [कश्यप का प्रस्थान, सरमा का पुनः प्रवेश] सरमा-इस नीच ने आज फिर मायाजाल रचा है। अच्छा, आज तो सरमा जान पर खेल कर उस आर्य-बाला की मर्यादा की रक्षा करेगी। उस तिरस्कार का जो वपुष्टमा ने सिंहासन पर बैठ कर पिया है, प्रतिफल देने का अच्छा अवसर मिला है । देखें, क्या होता है। [आस्तीक का प्रवेश आस्तीक-आर्य, मैं आस्तीक प्रणाम करता हूँ। सरमा-कल्याण हो वत्म | तुम यहां कैसे आये ? आस्तोक-मां ने मुझे त्याज्य पुत्र वनाकर निकाल दिया है। सरमा-(उसके सिर पर हाथ फेरती हुई) आज से मैं तुम्हारी मां हूँ। वत्स दुगी न होना। तुम मेरे पाम रहो। माणवक और आस्तीक, मेरे दो बेटे थे । एक खो गया, तो दूसरा मिल गया। आस्तीक - मां, मुझे आज्ञा दो कि मैं क्या करूँ ! मरमा-आज तुम्हे बहुत बड़ा काम करना होगा। तुम पत्नीशामा के पीछे की खिडकी के पास चलो। जब तक मेरा कण्ठ-स्वर न सुनना, तब तक वहाँ से कही न जाना। आस्तोक-जो आज्ञा । ३४० : प्रसाद वाङमय