पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३६२

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पश्चम दृश्य [पत्नीशाला की पिछली खिड़की के निकट आस्तीक टहल रहा है) (योद्धा के वेश में मणिमाला का प्रवेश) आस्तीक-तुम कौन हो? मणिमाला-भाई आस्तीक ! तुम यहाँ कैसे ? आस्तीक-अरे ! मणिमाला, तुम इस वेश में क्यों ? मणिमाला-भाई ! आज विषम काण्ड है। पिताजी ने फिर कुछ आयोजन किया है । मैं भी इसीलिये आई हूं कि यदि हो सके तो उन्हें बचाऊँ। आस्तीक-मुझे भी सरमा माता ने भेजा है। किन्तु तुम्हारा यहां रहना तो ठीक नहीं। जब कोई उपद्रव संघटित होगा, तब तुम यहाँ रह कर क्या करोगी? मणिमाला-नही, मैं तो आज उपद्रव में कूद पड़ेगी। क्यों भाई, क्या तुम्हें रमणियों की दुर्बलता ही विदित है, उनका साहस तुमने नहीं सुना ? आस्तीक-किन्तु- मणिमाला-आज किन्तु-परन्तु कुछ नहीं सुनूंगी। आज मुझे विश्वास है कि पिताजी पर कोई भारी आपत्ति आवेगी। आस्तीक-क्यों? मणिमाला-भला कुकर्म का भी कभी अच्छा परिणाम हुआ है ? (कान लगाकर सुनती है) भीतर कुछ कोलाहल-सा सुनाई दे रहा है । मैं जाती हूँ। [जाना चाहती है, आस्तीक हाथ पकड़ कर रोकता है] आस्तीक-ठहरो मणि ! तुम न जाओ। मणिमाला-छोड़ दो भाई। मैं अवश्य जाऊंगी, इसीलिये वेश बदल कर आयी हूँ। [मणिमाला हाथ छुड़ाकर चली जाती है, माणवक का प्रवेश] आस्तीक-कौन ? माणवक ! माणवक-भाई आस्तीक ! [खिड़की खुलती है, मूच्छिता वपुष्टमा को लिये कई नागों का उसी से बाहर आना, सरमा पीछे से आकर उनको रोकना चाहती हैं, नागों का वपुष्टमा को ले जाने का प्रयत्न] माणवक-तुम इसे मेरी रक्षा में छोड़ दो। नागराज की सहायता करो। [घबड़ाये हुए नाग वपुष्टमा को उसी के हाथ सौंप देते हैं] सरमा-यहाँ बात मत करो। शीघ्र चलो। ३४२: प्रसाद वाङ्मय