पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३६३

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आस्तीक-किन्तु मणिमाला भी यहीं है । सरमा-आर्य लोग स्त्रियों की हत्या नहीं करते, चलो। [चारों जाते हैं, रक्षकों से युद्ध करते हुए तक्षक का प्रवेश, और भी आर्य सैनिक आ जाते हैं, तक्षक और मणिमाला दोनों बन्दी होते हैं] दृश्या न्त र षष्ठ दृश्य [वेदव्यास अपने आश्रम में बैठे हैं, माणवक, आस्तीक, सरमा और वपुष्टमा भी हैं]] व्यास-ब्रह्मचक्र के प्रवर्तन में कैसी कठोर कमनीयता है ! वत्स आस्तीक, मैंने तुमसे जो कहा था, उसे मत भूलना। आस्तीक -भगवन् ! मैं मातृद्रोही हो गया है। मैंने माता की आज्ञा नही मानी। मेरे सिर पर यह एक भारी अपराध है। ०या- पास, सत्य महान् धर्म है। इतर धर्म क्षुद्र हैं, और उसी के अंग हैं । वह तप से भी उच्च है, क्योंकि वह दम्भ-विहीन है। वह शुद्ध-बुद्धि की आकाशवाणी है । वह अन्तरात्मा की सत्ता है । उसको दृढ़ कर लेने पर ही अन्य सब धर्म आचरित होते हैं । यदि उससे तुम्हारा पद-स्खलन नहीं हआ, तो तुम देखोगे कि तुम्हारी माता स्वयं तुम्हारा अपराध क्षमा और अपना अपराध स्वीकृत करेगी, क्योंकि अन्त में वही विजयी होता है, जो सत्य को परम ध्येय समझता है । माणवक-भगवन्, यह बात सर्वत्र तो नहीं घटित होती। क्या इसमें अपवाद नहीं होता ? यदि सत्य का फल श्रेय ही होता, यदि पाप करने से लोग प्रत्यक्ष नरक की ज्वाला में जलते, यदि पुण्य करते हुए जीवन को सुखमय बना सकते, तो क्या संसार में कभी इतना अत्याचार हो सकता था ? व्यास-वत्स माणवक, विजय एक ही प्रकार की नहीं है, और उसका एक ही लक्षण नहीं है। परिणाम में देखोगे कि तुम श्रेयस्कर मार्ग पर थे । यदि प्रतिहिंसावश तुमने नानों का साथ दिया था, तो उस अलौकिक प्रभुता ने उसका भी कुछ दूसरा ही तात्पर्य रक्खा था। आज यदि तुम वहाँ न होते, कोई दूसरा नाग होता, तो इस पौरव कुलवधू की क्या अवस्था होती? क्या उस सम्राट् पर यह तुम्हारी विजय नहीं है, जिसके भाइयों ने तुम्हें पीटा था ? तुम्हारे सत्य ने ही तुम्हें विजय दिलायी है। सरमा-आर्य, श्री चरणों की कृपा से मेरी सारी भ्रान्ति दूर हो गयी, किन्तु एक अवशिष्ट है। जनमेजय का नाग यज्ञ : ३४३