पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३६६

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[कुछ नागों का प्रवेश नाग-नागमाता ! आपकी कृपा और सेवा-शुश्रूषा से अब हम लोग इस योग्य हो गये हैं कि फिर युद्ध कर सकें। आज्ञा दीजिये, अब हम लोग क्या करें? सुना है, नागराज बन्दी हो गये है । पहले उनका उद्धार करना चाहिये । मनसा-वत्सगण, अब और जन-क्षय कराने की आवश्यकता नही है । बन्दी तक्षक को जनमेजय कभी का जला देता, किन्तु सुना है, उसकी रानी का पता नहीं है, इसलिए अभी कुछ नहीं हुआ। नाग-तो क्या नागराज जलाये जायं, और हम लोग यहां पड़े-पड़े आनन्द करें! धिक्कार है ! मनसा-वत्स, उत्तेजित न हो। वासुकि-नही मनसा, अब मत रोको, अब इस भग्न गृह को बचा रखने से क्या लाभ ! इसे गिर जाने दो। दो-चार हूंठ वृक्षों पर इतनी ममता क्यों ? इन्हें सूख जाने दो । जब हरा-भरा कानन जल गया, तब इन्हे भी जल जाने दो। चलो वीरो, जो लोग युद्ध के योग्य है, वे सब एक बार निर्वाणोन्मुख दीप की भांति जल उठे । यदि औरों को न जला सके, तो स्वयं ही जल जायें। सारी कथा ही समाप्त हो जाय। नाग-हम प्रस्तुत है। वासुकि-तो फिर चलो। मनसा-क्यों भाई, क्या तुम मेरी बात न सुनोगे ? वासुकि-बहन, तुम्हारी बात सुनने के कारण ही आज तक यह सब हुआ। अब तुम्हारे हृदय मे स्त्री-सुलभ करुणा का उद्रेक हुआ है, इसीलिये तुम मुझे दूसरी ओर फेरना चाहती हो । यही तो स्त्रियो की बात है । एक भयानक क्रूरता को ठोकर मारकर जगा चुकी हो, और अब फिर उसे थपकी देकर सुला देना वाहती हो ! पर अब यह बात नही होने की ! मरण के डर से मैं कलंकित जीवन बचाने का दुस्साहस न करूंगा। मनसा-भाई, तुम्हारी मनसा तुमसे क्षमा चाहती है। जातिनाश कराने का कलंक उसके सिर पर न लगने दो। वासुकि-अब कोई उपाय नही है । मनसा--(कुछ सोचकर) अच्छा, तुम अवशिष्ट सैनिकों को साथ लेकर चलो। मैं भी चलती हूँ। यदि सन्धि करा सकी, तब तो ठीक ही है, नही तो हम सब लोग जल मरेंगे। वासुकि-(हंसकर) अभी इतनी आशा है ? ३४६: प्रसाद वाङ्मय