पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३६७

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मनसा-एक बार आर्यों के महर्षि बादरायण के पास जाऊँगी । सुना है, उनकी महिमा अपूर्व है । सम्भव है, उनसे मिलकर कुछ काम कर सकू। नाग-अच्छी बात है। एक बार और चेष्टा कर देखिये । हम लोग पूर्णाहुति के लिए प्रस्तुत होकर चलते हैं। किंतु स्मरण रहे, जिस स्वतन्त्रता के लिए इतना रक्त बहाया गया है, वह स्वतन्त्रता हाथ से जाने न पावे। मनसा-विश्वास रखो, मनसा कभी अपमान-जनक सन्धि का प्रस्ताव न करेगी। नाग-बाला को भी मरना आता है। सब नाग--जय, नागमाता की जय । दृश्या न्त र - अष्टम दृश्य [यज्ञ-शाला में बन्दी तक्षक, मणिमाला, जनमेजय, शौनक, उत्तंक, सोमवा, चण्डभार्गव आदि] नोजय-इतनी नम्रता और आज्ञापालन का यह परिणाम ! इतनी प्रतिहिंसा! प्रभुत्व का इतना लोभ ! धन्य हो भूसुरो ! तुमने अच्छा प्रतिशोध लिया। ब्राह्मण-राजन्, लोभ और हठ से जो धर्म आचरित होता है, उसका ऐसा ही परिणाम हुआ करता है । इसमें इन्द्र ने बाधा डाली है। जनमेजय - चुप रहो। तुम्हें लज्जा नहीं आती ! ब्राह्मण होकर ऐसा गर्हित कार्य ! शत्रु से मिलकर महिषी को छिपा देना ! ये सब मुझे लज्जित करने के उपाय हैं। मैं अवश्य इसका प्रतिशोध लूंगा। क्रोध से मेरा हृदय जल रहा है। इसी अनलकुण्ड में तुम सबकी आहुति होगी ! सोमश्रवा-राजन्, सुबुद्धि से सहायता लो। प्रमत्त न बनो। हो सकता है कि पदच्युत काश्यप का इसमें कुछ हाथ हो, किन्तु समस्त ब्राह्मणों को क्यों इसमें मिलाते हो? जनमेजय-तुम लोगों को इसका प्रतिफल भोगना होगा। यह क्षात्र रक्त उबल रहा है। . उपयुक्त दण्ड तो यही है कि तुम सबको इसी यज्ञकुण्ड में जला दूं। किन्तु नहीं, मैं तुम लोगों को दूसरा दण्ड देता हूँ। जाओ, तुम लोग मेरा देश छोड़कर चले जाओ। आज से कोई क्षत्रिय अश्वमेध आदि यज्ञ नहीं करेगा। तुम सरीखे पुरोहितों की अब इस देश में आवश्यकता नहीं । जाओ, तुम सब निर्वासित हो। सोमश्रवा --अच्छी बात है, तो जाता हूँ राजन् ! जनमेजय-हां हो। जाना ही पड़ेगा। सबको निकल जाना पड़ेगा। परन्तु उत्तंक तुम्हारा एक काम अवशिष्ट है । . 1 जनमेजय का नाग यज्ञ : ३४७