पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३६९

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! जनमेजय-यही तो मैं तुमसे कहलाना चाहता था। अब तुम्हारी बारी है। [वेद और दामिनी का प्रवेश] वेद-आयुष्मन् उत्तंक ! उत्तंक-गुरुदेव, प्रणाम। वेद-उत्तंक उत्तेजित होकर प्रतिक्रिया करने की भी कोई सीमा होती है । उत्तंक -भगवन्, यह तो मेरा कर्तव्य है । कृपया इसमें बाधा न दीजिये । दामिनी-उत्तंक ! हृदय के अतिवाद मे वशीभूत होने का मुझ से बढ़कर और कोई उदाहरण न मिलेगा। तुम कुछ मस्तिष्क से काम लो। उत्तंक-तुम मेरी गुरुपत्नी ! आश्चर्य ! दामिनी-उत्तंक, मैं क्षमा चाहती हूँ। आर्यपुत्र ने मुझे क्षमा कर दिया है। तुम भी अब पिछली बाते भूल जाओ और क्षमा कर दो। उत्तंक-गुरुदेव समर्थ है, पर मुझमें हृदय है । दामिनी-हदय है तब तो तुम उसकी दुर्वलता से और भी भलीभांति परिचित होगे ! उगव--समझ गया ! यह मेरा दम्भ था। मैं भी क्या स्वप्न देख रहा था। (बैठ जाता है) जनमेजय-(अनुचरों से) इन अभिनयों में काम न चलेगा। जलाओ दुष्ट तक्षक को। [अनुचर तक्षक, वासुकि आदि को जलाना चाहते हैं, इतने में व्यास के साथ सरमा, मनसा, माणवक और आस्तीक का प्रवेश] व्यास-ठहरो ! ठहरो ! जनमेजय - भगवन्, यह पारीक्षित जनमेजय आपके चरणो में प्रणाम करता है। आस्तीक- मेरा प्रतिफल ! मेर। न्याय ! जनमेजय -तुम कौन हो? आस्तीक-जिस ब्रह्महत्या का प्रायश्चित करने के लिए तुमने अश्वमेध किया है, मैं उमी ब्रह्महता की क्षतिपूर्ति चाहता हूं। मैं उन्ही जरत्कारु ऋषि का पुत्र हूँ, जिनकी तुमने बाण चलाकर हत्या की थी। जनमेजय -- आश्चर्य ! कुमार ! तुम्हारा मुख-मण्डल तो बड़ा सरल है, फिर भी वह क्या कह रहा है ! मैं किस लोक मे हूँ ! व्यास-- सम्राट्, तुम्हें न्याय करना होगा। यह बालक अपने पिता की हत्या की क्षतिपूर्ति चाहता है। आर्य न्यायाधिकरण के समक्ष यह बालक तुम पर अभियोग न लगाकर केवल क्षतिपूर्ति चाहता है। क्या तुम इसे भी अस्वीकृत करोगे ? जनमेजय का नाग यज्ञ : ३४९