पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३७०

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जनमेजय-मुझे स्वीकार है भगवन् ! आस्तीक, तुम क्या चाहते हो ? क्या मैं अपना रक्त तुम्हें दूं? आस्तीक-नहीं, मुझे दो जातियों में शान्ति चाहिये । सम्राट्, शान्ति की घोषणा करके बन्दी नागराज को छोड़ दीजिये। यही मेरे लिए यथेष्ट प्रतिफल होगा। जनमेजय-(सिर घुमाकर) अच्छी बात है, वही हो । छोड़ दो तक्षक को। व्यास-धन्य है क्षमाशील ब्रह्मवीर्य ! ऋषिकुमार, तुम्हारे पिता धन्य हैं। [लोग तक्षक को छोड़ देते हैं, वासुकि से सरमा का मिलन] सरमा-महाराज, मेरा भी एक विचार है। आप उसका न्याय कीजिये। जनमेजय-कौन ? यादवी सरमा ! सरमा हाँ, मैं ही हूँ सम्राट् ! जनमेजय-तुम्हारे लड़के को मेरे भाइयों ने पीटा था ? तुम क्या चाहती हो ? सरमा-जब आप स्वीकार करते हैं, तब मुझे कुछ न चाहिये। आर्य सम्राट मुझे केवल एक वस्तु दीजिये, और परिवर्तन मे मुझसे कुछ लीजिये भी। जनमेजय -क्या प्रतिदान ? सरमा-हाँ, सम्राट् ! जनमेजय--वह क्या ? सरमा-इस नागबाला मणिमाला को आप अपनी वधू बनाइये । [जनमेजय सिर नीचा कर लेता है] व्यास--किन्तु मरमा, यह तुम अनधिकार चर्चा करती हो। पहले वपुष्टमा को बुलाओ, वे स्वीकृति दें। सरमा यही हो । (जाकर वपुष्टमा को ले आती है) वपुष्टमा-आर्यपुत्र की जय हो ? जनमेजय-षड्यन्त्र ! यह कभी न होगा ! धर्षिता स्त्री कौन ग्रहण करेगा ! व्यास-सम्राट्, तुम्ही करोगे ! जब पुरुषों ने स्त्रियों की रक्षा का भार लिया है, और उनको केवल अपनी सीमा में स्वतन्त्रता मिली है, तब यदि उनकी अरक्षित अवस्था में उन पर अत्याचार होगा, तो उसका अपराध उनके रक्षकों के सिर पर होगा। क्या अबला होने के कारण यही सब ओर से अपराधिनी है ? नहीं, मैं कह सकता हूँ कि यह पवित्र है, कमल-वन से निकले हुए प्रभात के मलय-पवन के समान शुद्ध है । इसे स्वीकार करना होगा । वपुष्टमा, आगे बढ़ो। वपुष्टमा- -नाथ ! दासी श्रीचरणों की शपथ करके कहती है कि यह पवित्र है। (पैर पकड़ती है) ३५० : प्रसाद वाङ्मय