पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३७२

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नहीं कर सकते ? सहनशील होना ही तो, तपोधन और उत्तम ब्राह्मण का लक्षण है। किन्तु मानूंगा, व्यासदेव, तुम्हारी ज्ञान-गरिमा को, तुम्हारी वृत्ति को, तुम्हारी शान्ति को मानूंगा । आज तक अवश्य कुछ ब्राह्मण तुम्हे दूसरी दृष्टि से देखते थे, किन्तु नही, तुम सर्वथा स्तुत्य और वन्दनीय हो। तुम्हारा अगाध पाण्डित्य ब्राह्मणत्व के ही योग्य है। व्यास-सम्राट्, तुमने मुझसे एक दिन पूछा था कि क्या भविष्य है। देखा नियति का चक्र ! यह ब्रह्मचक्र आप ही अपना कार्य करता रहता है। मैंने कहा था कि यज्ञ मे विध्न होगा। फिर भी तुमने यज्ञ किया ही। किन्तु जानते हो, यह मानवता के साथ ही साथ धर्म का भी क्रम-विकास है। यज्ञो का कार्य हो चुका। बालक सृष्टि खेल कर चुकी। अब परिवर्तन के लिए यह काण्ड उपस्थित हुआ है। अब सृष्टि को धर्म-कार्यों मे विडम्बना की आवश्यकता नही। सरस्वती और यमुना के तट पर शुद्ध और सत्य के समीप ले जानेवाले उपनिषद् और आरण्यक संवाद हो रहे है। इन्ही महात्मा ब्राह्मणो की विशुद्ध ज्ञान-धारा से यह पृथ्वी अनन्त काल तक सिञ्चित होगी, लोगो को परमात्मा की उपलब्धि होगी, लोक मे कल्याण और शान्ति का प्रचार होगा । सब लोग मुखपूर्वक रहगे। सब-भगवन् की वाणी सत्य हो। व्यास-विश्वात्मा का उत्थान हो। प्रत्येक हत्तन्त्री मे पवित्र पुण्य के सामगान की मीडे लहरा उठे। [नेपथ्य में गान] जय हो उसकी, जिसने अपना विश्व-रूप विस्तार किया। आकर्षण का प्रेम नाम से सब में सरल प्रचार किया । जल, थल, नभ का कुहक बन गया जो अपनी ही लीला से । प्रेमानन्द पूर्ण गोलक को निराधार आधार दिया । हम सब मे जो खेल कर रहा अति सुन्दर परछाई-सा । आप छिप गया आकर हममे, फिर हमको आकार दिया । पूर्णानुभव कराता है जो 'अहमिति' से निज सत्ता का । 'तू मैं ही हूँ' इस चेतन का प्रणव मध्य गुजार किया। [यवनिका] 47 ३५२: प्रसाद वाङमय